Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

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Page 163
________________ पुत्रस्त्वेकस्य संजातः सेोदरेषु च भूरिषु । तदा तेनैव पुत्रेण ते सर्वे पुत्रिणः स्मृताः ।। १०० ।। अर्थ-एक से अधिक भाइयों में से यदि एक भाई के भी पुत्र उत्पन्न हो तो उसके कारण सकल भाई पुत्रवान होते हैं ।। १०० ॥ अविभक्तं क्रमायातं श्वशुरस्वं नहि प्रभुः । कृत्ये निजे व्ययीकतु सुतसम्मतिमंतरा ॥ १०१ ॥ अर्थ-परम्परा से चली आई ससुरे की सम्पत्ति को अपने पुत्र की सम्मति बिना मृतक लड़के की विधवा को अपने कार्य में खर्चने का अधिकार नहीं है ॥ १०१ ॥ विभक्ते तु व्यय कुर्याद्धर्मादिषु यथारुचि । तत्पन्यपि मृतौ तस्य कर्तुं शक्ता न तद् व्ययम् ॥ १०२ ॥ निर्वाहमात्रं गृह्णीयात्तद्र्व्यस्य चामिषतः । प्राप्तोऽधिकारं सर्वत्र द्रव्ये व्यवहृता सुतः ॥ १०३ ।। अर्थ-स्वामी के भाग में आये पश्चात् स्त्री अपने इच्छानुसार धर्मादिक और अन्य कार्यों में व्यय कर सकती है। परन्तु अदि पति बाँट के पहिले ही मर गया हो तो वह केवल गुज़ारे मात्र के लिए उसकी जायदाद की आमदनी के लेने का हक रखती है। खर्च करने का नहीं; शेष सब द्रव्य का अधिकारी पुत्र ही है ।। १०२-१०३ ।। नोट-यह नियम वहाँ लागू होगा जहाँ बाबा जीवित है और मृतक लड़के का लड़का जीवित है। नियम यह है कि अगर मृतक पुत्र को बाबा ने हिस्सा देकर पृथक कर दिया था तब विधवा उसकी वारिस होगी; नहीं तो जब उसका पति अपने जीते जो किसी वस्तु का मालिक नहीं था तो वह किसी वस्तु की अधिकारिणी न होगी। क्योंकि बाबा के होते हुए उसके पति का उसकी जायदाद में कोई हक नहीं था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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