Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

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Page 185
________________ लाया था कि वह लोग भी ऐसा कोई प्रमाण नहीं जानते थे, और दत्तक पुत्र के विषय में हिन्दू धर्म शास्त्र ही समान्यतया आधारभूत था। हाईकोर्ट ने इस बात का भी सहारा लिया कि विवाह संस्कार आदि बहुत सी बातों में जैनी लोग ब्राह्मणों की सहायता लेते हैं। उन्होंने कोलबुक, विल्सन और अन्य लेखकों का भी उल्लेख किया है जो उपर्युक्त युक्तियों के प्राधार पर एल्फिन्स्टन से सहमत हैं। विदित होता है कि जैन ग्रन्थ पेश नहीं किये गये। यद्यपि उनमें से कुछ के नाम जैसे वर्द्धमान ( नीति ), गौतम प्रश्न, पुण्य वचन ( Poonawachun ) आदि लिये गये थे ( देखो पृष्ठ २५५-२५६ )। महाराज गोविन्दनाथ राय बनाम गुलालचन्द वगैरह कलकत्ता के मुकदमे में सन् १८३३ में इनमें से कुछ के हवाले प्रगट रूप में दिये गये थे ( देखो ५ सदर दीवानी रिपोर्ट पृष्ठ २७६)। इस मुकद्दमे का उल्लेख हाईकोर्ट की तजवीज़ में है और मिस्टर स्टील की "हिन्दु कास्ट्स'' नाम की पुस्तक का भी। मिस्टर स्टील. ने दिखलाया है कि जैनियों के शास्त्र हिन्दुओं से भिन्न हैं; किन्तु हाईकोर्ट ने उन शास्त्रों के पेश होने के लिए आग्रह नहीं किया और स्वत: उनको नहीं मँगवाया। जिस पक्ष के कथन की पुष्टि हिन्दू शास्त्र से होती थी वह तो अदालत को इस विषय में सहायता देने का प्रयत्न स्वभावतः न करता, और अनुमानत: विरोधी पक्ष कोन्यायालयों में पेश करने के लिए कठिनता से प्राप्त होनेवाली हस्तलिखित जैन ग्रन्थों की प्राप्ति दुःसाध्य हुई होगी। खेद है कि आधुनिक न्यायाधीश, पुराने समय के तिरस्कृत “काज़ी' के समान अपना कर्तव्य यह नहीं समझता कि उचित निर्णय करने के लिये सामग्री को संग्रहीत करे; वह कभी कभी उपस्थित सामग्री पर तो अधिक छान-बीन कर डालता है, किन्तु सामग्री उसके समक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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