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का है और वह एक ऐसे लेखक के कहने से जो स्वपरधर्म से अनभिज्ञ है अपने श्रद्धान से च्युत न होंगे।
अब वह इन्द्र जिसका उपाख्यान हिन्दू धर्मशास्त्रों में स्थान स्थान पर है स्वर्ग का शासक नहीं है किन्तु जीवात्मा का अलंकार (रूप-दर्शक ) है ( देखो Confluence of Opposites व्याख्यान ५)। यदि एल्फिन्स्टन और वह अन्य व्यक्ति जिन्होंने झटपट यह अनुमान कर लिया कि जैनी हिन्दू डिस्सेन्टर्ज़ थे ऋग्वेद के अर्थ को समझने का प्रयत्न करते तो वह यह जान लेते कि वह ग्रन्थ एक गुह्य भाषा में बनाया गया है कि जो बाह्य संस्कृत शब्दों के नीचे छिपी हुई है। आधुनिक जनता इस गुह्य भाषा से नितान्त अनभिज्ञ है। यद्यपि वही होली-बाइबिल, जैन्ड-अवस्था और कुरान समेत करीब करीब सभी धर्मग्रन्थों की वास्तविक भाषा है। किन्तु जैन धर्म किसी गुह्य भाषा में नहीं लिखा गया। और न उसमें अलङ्कारयुक्त देवी देवताओं का कथन है ।
अब वह युक्ति जो जैन मत को हिन्दू मत से अधिक प्राचीन सिद्ध करती है, यह है कि घटना अलङ्कार से पहिले होती है, अर्थात् वैज्ञानिक ज्ञान अलङ्काररूपो सिद्धान्तों से पूर्व होता है। बात यह है कि जैन ग्रन्थ और वेद दोनों में प्राय: एक ही बात कही गई है, किन्तु जैन ग्रन्थों की भाषा स्पष्ट है और वेदों का कथन गुप्त शब्दों में है जिनको पहिले समझ लेने की आवश्यकता होती है। मैंने इस बात को अपनी पुस्तक कोन्फ्लुएन्स ओफ़ ओप्पोज़िट्स ( Confluence of Opposites) और प्रैक्टीकल पाथ (Practical Path) के परिशिष्ट में स्पष्ट कर दिया है और इस कथन को भिन्न
+ उपयुक्त पुस्तकों के अतिरिक्त देखो दि परमेनेन्ट हिस्ट्री ऑफ़ भारतवर्ष और आत्म रामायण ।
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