________________
साथ कुल नज़ीरों का निरीक्षण किया और अपना हुक्म सुनाया। और शायद उस दशा में जिसमें मुकदमा लड़ा था और कोई हुक्म सम्भव न था। हम एकदम यह कह सकते हैं कि निर्णय जैननीति नियमों के अनुसार है और इसकी अपेक्षा किसी को प्राक्षेप का अवसर नहीं मिल सकता है। परन्तु आवश्यकीय ध्यान देने योग्य बाते इस फैसले की युक्तियाँ हैं और यह कि इसका जैन-लों के अस्तित्व व उसकी स्वतन्त्रता के विषय में क्या प्रभाव पड़ा, और प्रागामी समय में पड़ने का गुमान हो सकता है। इस फैसले में दो भारी गल्तियाँ वाकयात की हाईकोर्ट ने की हैं। पहिली तो यह कल्पना है कि "ग्यारह बारह शताब्दियों से अधिक से जैनी लोग वेदों के मत से पृथक हो गये।" जो प्रारम्भिक योरोपियन खोजियों की जल्दबाज़ी का परिणाम है, और जिनकी सम्मति से अब भारतीय खोज का प्रत्येक सञ्चा जानकार असहमत होता है ( देखो इन्साइक्लोपीडिया ओफ़ रिलीजन व ईथिक्स जिल्द ७ पृष्ठ ४६५)। यह गलत राय भगवानदास तेजमल ब० राजमल (१० बम्बई हाईकोर्ट रिपोट स पृष्ठ २४१) के मुकदमे में एल्फिस्टन की हिस्ट्रो और कुछ अन्य युक्तियों के आधार पर मान ली गई थी और पश्चात् के कुछ मुकदमात में दोहराई भी गई थी। मुख्य अंश इस गल्ती का यह है कि जैन मज़हब ईस्वी संवत् की छठी शताब्दी में बुद्ध मत की शाखा के तौर पर प्रारम्भ हुआ और बारहवीं शताब्दी में उसका पतन हुआ। परन्तु जैसा कि पहिले कहा गया है आज यह बात नितान्त निर्मूल मानी जाती है।
दूसरी ग़लती जो इस तजवीज़ में हुई वह यह है कि जैनियों के कोई शास्त्र नहीं हैं। आज हम इस प्रकार की व्याख्या पर केवल हँस पड़ेंगे। पचास वर्ष हुए जब कदाचित् इसके लिए कुछ मौका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org