Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

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Page 199
________________ यदि हम इस अलङ्कारयुक्त भाव की ओर दृष्टि न करें तो हिन्दू मत और जैन मत का किसी बात पर भी, जो वास्तविक धर्म सिद्धांतों से सम्बन्ध रखती हो, सहयोग नहीं मिलेगा और दोनों विभिन्न और पृथक होकर बहनेवाली सरिताओं की भाँति पाये जायेंगे, यदि एक ही प्रकार के सामाजिक सभ्यता और जीवन का ढङ्ग दोनों में पाया जावे। अब जैन-लॉ की सुनिए ! ये शास्त्र, जो एकत्रित किये गये हैं, जाली नहीं हैं। इनमें से कुछ का उल्लेख भी प्रारम्भ के दो एक मुक़दमों में आया है, यद्यपि इसमें न्यायालयों का कोई दोष नहीं है यदि उनका अस्तित्व अब तक स्वीकार नहीं हो पाया है। जैनियों ने भी अपने धर्म को नहीं छोड़ा है और न हिन्दू मत को या हिन्दृ लॉ को स्वीकृत किया है। बृटिश ऐडमिन्स्ट्रेशन की वह निष्पक्ष पालिसी, कि सब जातियाँ और धर्म अपनी अपनी नीतियों के ही बद्ध हों, जिसका वर्णन सर मोन्टेगो स्मिथ ने प्री० को० के निर्णय में ( ब मुकदमा शिवसिंहराय ब० मु० दाखो ) किया प्रभो तक न्यायालयों का उद्देश्य है। तो क्या यह आशा करना कि शोध से शोघ्र उस बड़ो भूल के दूर करने के निमित्त, जो न्याय और नीति के नाम से अनजान दशा में हो गई, सुअवसर का लाभ उठाया जावेगा निरर्थक है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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