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शहादत की तुलना से जिससे रिवाज प्रमाणित किया जाता है। तो भी प्रीवी कौसिल के लाट महोदयों ने कुछ बड़े गम्भीर जुमले इस सिलसिले में लिखे हैं कि जैनियों का अधिकार है कि वह अपनी ही नीति व रिवाजों के अनुसार कार्यबद्ध हों। पृष्ठ ७०२ पर वह फ़रमाते हैं
"उन्होंने (हाईकोर्ट के जजों ने ) भूतपूर्व नज़ीरों के अध्ययन से यह परिणाम निकाला कि वह इस परिणाम के विरुद्ध नहीं थे कि किन्हीं किन्हीं विषयों में जैनी लोग मुख्य रिवाज व नीतियों के बद्ध हों, और यह कि जब यह निश्चयात्मक ढङ्ग से प्रमाणित हो जावें तो उनको लागू करना चाहिए। अपीलान्ट के सुयोग्य कौंसिल ने जिसने इस मुकदमा की बहस प्रीवी कौंसिल के लाट महोदयों के समक्ष की इस परिणाम की सत्यता में किसी प्रकार का विवाद उठाने के योग्य अपने को नहीं पाया । यह अवश्य आश्चर्यजनक होता यदि ऐसा पाया जाता कि हिन्दुस्तान में जहाँ बृटिश गवर्नमेंट की न्याय युक्ति में कि जिसके अनुसार सार्वजनिक ढङ्ग से साधारण कानून से चाहे वह हिन्दुओं का हो या मुसलमानों का एक बृहत् प्रथकत्व की गुमाइश रक्खी गई है अदालतों ने जैनियों की बड़ी और धनिक समाज को अपने मुख्य नियमों और रिवाजों के अनुसरण करने से रोक दिया हो, जब कि यह नियम व रिवाज यथेष्ट साक्षी के आधार पर पेश किये जा सकते हों और उचित रीति से बयान किये जा सके, और सार्वजनिक सम्मति अथवा किसी अन्य कारणों से आक्षेप के योग्य नहीं।"
इस प्रकार यह मुक़दमा निर्णय हुआ जो उस समय से बराबर नज़ीर के तौर पर प्रत्येक अवसर में हिन्दुस्तानी अदालतों में जहाँ जैनी वादी प्रतिवादी में यह प्रश्न उपन्न होता है कि वह किस कानून से बद्ध हैं पेश होता है। यह कहना आवश्यकीय नहीं है कि प्रीवी कौंसिल के फैसले उच्चतम कोटि के प्रमाणित नज़ायर होते हैं जो निःसन्देह उनके लिए उचित मान है, इस अपेक्षा से कि वह एक ऐसे बोर्ड ( अदालत ) के परिणाम होते हैं कि जिसमें संसार के योग्यतम न्यायविज्ञ व्यक्तियों में से कुछ न्यायाधीश होते हैं। और
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