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संचित करनी ही पड़ती है। पश्चात् के मुक़दमात पर उसके निर्णय की ज्योति का प्रकाश पड़ता है और एक पूर्व निश्चित प्रमाण का उल्लङ्घन कराना किसी प्रकार से भी सहज कार्य नहीं है जैसा कि प्रत्येक वकील जानता है।
जैनियों ने तो मुसलमानों के आते ही दूकान बन्द कर दी और करीब करीब नाम की तख्ती भी उठा दी। इन आक्रमण करनेवालों ने जैन धर्म के विरुद्ध ऐसा तीव्र द्वेष किया कि उन्होंने जैन मन्दिरों और शास्त्रों को जहाँ पाया नष्ट कर दिया। साधारणत: लोग जैनियों को नास्तिक समझते थे ( यद्यपि यह एक बड़ी भूल थी) और इसी कारण से सम्भवतः उनको मुसलमान आक्रमण करनेवालों के हाथ से इतना कष्ट सहना पड़ा। जो कुछ भी सही, परिणाम यह हुआ कि जैनियों ने अपने शास्त्रभण्डार रक्षार्थ भूगर्भ में छिपा दिये, और वह प्रन्थ वहाँ पड़े पड़े चूहों और दीमकों का भोज्य बन गये और गलकर धूल हो गये। पिछले दुखद अनुभव का परिणाम यह हुआ कि मुग़ल राज्य के पश्चात् जो विदेशी अधिकार हुआ, जैनी उसकी ओर भी भयभीत होकर तिरछी आँख से देखते रहे, और यह केवल पिछले २० वर्ष की बात है कि जैन-शास्त्र किसी भाषा में प्रकाशित होने लगे हैं। मुझे सन्देह है कि कोई जैनी आज भी एक हस्तलिखित ग्रन्थ को मन्दिरजो में से लेकर अदालत के किसी कर्मचारी को दे दे। कारण कि शास्त्र विनय का उसके मन में बहुत बड़ा प्रभाव है और सर्वज्ञ वचन की अवज्ञा और अविनय से वह भयभीत है। जैन नीतिग्रन्थ ब्राह्मणीय प्रभाव से नितान्त विमुक्त हैं, यद्यपि जैन कभी कभी ब्राह्मणों की अपने शास्त्रों के बाँचने अथवा धार्मिक तथा लौकिक कार्यों के लिए सहायता लेते हैं।
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