Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

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Page 188
________________ जिसमें जैन-लॉ व जैन शास्त्रों का स्पष्टतया उल्लेख हुआ, पहिले ही हवाला दिया जा चुका है। अनुमानतः यह जैनियों का सबसे पहिला मुकदमा है जो छपा है । मैंने उस मुकदमे पर भी जो बम्बई हाईकोर्ट रिपोर्ट स की १० वीं जिल्द के सफे २४१ से २६७ पर उद्धृत है एक हद तक रायज़नी कर ली है। मुसम्मात चिम्नी बाई ब० गट्टो बाई का मुकदमा जिसका फैसला सन् १८५३ ई० में हुमा ( नज़ायर्स सदर दीवानी अदालत सूबे जात मगर्बी व शुमाली ६३६ उल्लिखित ६ एन० डब्ल्यु० पी० हाईकोर्ट रिपोर्ट्स सफा ३६४) इनके पश्चात् हमारी तवज्जह का अधिकारी है। इस मुकदमे में स्पष्टतया देखा जा सकता है कि जैनियों के हिन्दू डिस्सेण्टर्स ( Dissenters ) समझे जाने का फल कितना बुरा जैनलॉ के लिए हुआ । क्योंकि उसमें यह सिद्ध किया गया कि “जैनियों के झगड़े में जैन-लॉ के निर्णयार्थ अदालत के पण्डित की सम्मति लेने की कोई प्रावश्यकता नहीं है जब कि एक ऐसे फिर्के के सिद्धान्त के विषय में जो स्वीकृत रीति से हिन्दू समाज में से निकला ( Dissenting sect ) है उसकी सम्मति का प्रादर एक पक्षवाला नहीं करता है, बल्कि मुद्दइया के ऊपर इस बात का भार डालता है कि वह असली मत के कानून से अपने फिर्के की स्वतन्त्रता को जिस प्रकार उससे हो सके प्रमाणित करे। और यह बात अमर वाक़याती है।" इस अन्तिम वाक्य का तात्पर्य यह है कि यदि जिले की दोनों अदालते ( इब्तिदाई व अपील ) इस विषय में सहमत हों कि मुद्दइया हिन्दू-लॉ से अपने फिर्के की स्वतन्त्रता के प्रमाणित करने में असमर्थ रही तो हाईकोर्ट ऐसी मुत्तिफ़िक तजवीज़ के विरुद्ध कोई उज़र नहीं सुनेगी। तिस पर भी इस मुकदमे में यह करार दिया गया कि जैनियों का यह हक है कि “वह अपने ही शास्त्रों के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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