Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

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Page 161
________________ पारिव्रज्या गृहीतैकेनाविभक्तषु बन्धुषु । विभागकाले तद्भागं तत्पनी लातुमर्हति ।। ६० ।। अर्थ-यदि सब भाई मिलकर रहते हैं और उनका विभाग नहीं हुआ है और ऐसी दशा में यदि कोई भाई दीक्षा ले ले तो विभाग करते समय उसके भाग की अधिकारिणी उसकी स्त्री होगी॥६०॥ पुत्रस्त्रीवर्जितः कोऽपि मृतः प्रव्रजितोऽथवा । सर्वे तद्भातरस्तस्य गृह्णीयुस्तद्धनं समम् ॥ ६१ ॥ अर्थ--जो पुरुष पुत्र या स्त्री को छोड़े बिना मर जाय अथवा साधू हो जाय तो उसका धन उसके शेष भाई व भाई के पुत्र सम भाग बाँट लें ।। ६१ ।। उन्मत्तो व्याधितः पंगुः षंढोऽन्धः पतितो जडः । स्रस्ताङ्गः पितृविद्वेषी मुमूर्षुर्वधिरस्तथा ॥ १२ ॥ मूकश्च मातृविद्वेषी महाक्रोधी निरिन्द्रियः । दोषत्वेन न भागार्हाः पोषणीयाः स्वभ्रातृभिः ॥ ६३ ॥ अर्थ-पागल, ( असाध्य रोग का ) रोगी, लँगड़ा, नपुसक, अन्धा, पतित, मूर्ख, कोढ़ी, अङ्गहीन, पिता का द्वषी, मृत्यु के निकट, बहरा, मूक ( गूंगा), माता से द्वेष करनेवाला, महाक्रोधी, इन्द्रियहीन, ऐसे व्यक्ति भाग नहीं पा सकते। केवल और भाई उनका पालन पोषण करेंगे ॥६२-६३ ॥ एषां तु पुत्राः पल्यश्चेच्छुद्धा भागमवाप्नुयुः । दोषस्यापगमे त्वेषां भागार्हत्वं प्रजायते ॥ ४ ॥ अर्थ--यदि ऐसे दूषणोंवाले व्यक्ति के पुत्र तथा स्त्री दोष-रहित हों तो उसका भाग उनको मिलेगा और यदि वे स्वय दोष-रहित हो गये हो ना भाग की योग्यता पैदा हो जाती है ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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