Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

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Page 176
________________ किसी और तीर्थकर ने इसको स्थापित किया था" (देखो पूर्ण व्याख्यान डाक्टर टी० के० लड्डू जिसको आनरेरी सेक्रेटरी स्याद्वाद् महाविद्यालय बनारस ने प्रकाशित किया है)। स्वर्गीय महामहोपाध्याय डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने भी इसी बात को सिद्ध किया है कि "यह निर्णय होता है कि इन्द्रभूति गौतम जो कि महावीर का निज शिष्य था, और जिसने उनके उपदेशों का संग्रह किया, बुद्ध गौतम का समकालीन था, जिसने कि बौद्ध धर्म चलाया; और अक्षपाद गौतम का भी समकालीन था, जो कि ब्राह्मण था और न्याय सूत्र का बनानेवाला था" ( देखा जैन गजेट जिल्द १० नं० १)। डाक्टर जे० जी० ब्यूहर ( Dr. J. G. Buhler, C. I. E., LL. D., Ph. D. ) बतलाते हैं___ "जैनियों के तीर्थ कर-सम्बन्धी व्याख्याओं को बौद्ध स्वतः ही सिद्ध करते हैं। पुराने ऐतिहासिक शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि जैन श्राम्नाय स्वतंत्र रूप में बुद्ध की मृत्यु के पीछे की पाँच शताब्दियों में भी बराबर प्रचलित थी, और कुछ शिलालेख तो ऐसे हैं कि जिनसे जैनियों के कथन पर कोई सन्देह धोखा देने का नहीं रह जाता है; बल्कि उसकी सत्यता दृढ़ता से सिद्ध होती है।" ( देखो “ The Jainas' PP. 22-23)* ! मेजर-जनरल जे० जी० आर फोलौंग ( J. G.R. Forlong, F. R. S. E., P. R. A. S., M. A. D., etc, etc.) लिखते हैं "ईसा से पहले १५०० से ८०० वर्ष तक, बल्कि एक अज्ञात समय से उत्तरीय पश्चिमीय और उत्तरीय-मध्य भारत तूरानियों के, जिनको सुभीते के लिए द्राविड़ कहा गया है, राज्य शासन में था, और वहाँ वृक्ष, सर्प और लिङ्ग-पूजा फ्रान्स के प्रसिद्ध विद्वान् डा० ए० गेरीना अपनी जैन बिबलीप्रोग्रफ़ी की भूमिका में लिखते हैं कि “इसमें अब कोई सन्देह नहीं है कि पार्श्वनाथ ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं।............इस काल में जैन मत के २४ गुरु हुए हैं। ये सामान्य रूप से तीर्थङ्कर कहलाते हैं। २३ । अर्थात् पार्श्वनाथजी से हम इतिहास और यथार्थता में प्रवेश करते हैं।"-अनुवादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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