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दूसरा विवाह हुआ है, और छोड़ दिया हुआ बच्चा जो पुत्र की भाँति रखा गया हो ।। ३२-३३ ॥
ते पुत्ता पुत्तकप्पा दायादा पिण्डदावं ।
सुद्दा उ दासों विहु जादो थिय जणय इच्छिया भागी ।। ३४ ॥ अर्थ - यह पुत्र तुल्य हैं । परन्तु यह दायाद या पिण्डदाता नहीं हैं । शूद्रा दासी से जो पुत्र उत्पन्न हो उसका पिता के धन में पिता के इच्छानुसार ही भाग होता है ।। ३४ ।।
पित्त गये परलोये अद्धं अद्धं सहयहुते सब्बे । दायादा के के विक्षु पठमं भज्जा तदा दुपुत्तोहि ॥ ३५ ॥
अर्थ - यदि पिता मर जाय तो वह ( दासीपुत्र ) प्राधा भाग लेगा । और दायाद कौन हो सकते हैं ? प्रथम धर्मपत्नी, फिर पुत्र ।। ३५ ।। पच्छादु भायराये पच्छातह तस्सुदाणेया ।
पच्छा तहा स पिंडा तहा सुपुत्ती तहा सुतज्जोय || ३६ || अर्थ - फिर भाई, फिर भतीजे, फिर सपिण्ड, तत्पश्चात् पुत्री और उसके बाद पुत्री का पुत्र || ३६ ||
इको विबंधुवि सुग्गोयेजा जाइ जो हु दब्बे ।
तस्सव काय पमाणं रायपमाणं हेवइ जं पत्त ।। ३७ ।।
अर्थ - इनके पश्चात् कोई बन्धु, फिर कोई गोत्रीय, फिर कोई जातीय, मृतक के धन का स्वामी, लोक अथवा राज्य - नियमानुकूल से हो सकता है || ३७ ॥
दत्ते तम्मण कलहो सुसिच्छदो धम्मसूरिहिं णिच्चं । दिण्णम परायपेत्त ससरिकथं गो हवेइ कलहोय || ३८ अर्थ- उक्त प्रकार दाय अधिकार में कलह न होगा; ऐसा धर्माचार्यों ने सदा के लिए निश्चय किया है । राज्यनीति व लोकव्यवहार के अनुसार दाय के निर्णय करने में विवाद न होगा || ३८ ॥
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