Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 155
________________ अर्थ-दत्तक पुत्र गोद लेनेवाले माता पिता की सेवा में तत्पर हो और भक्तियुक्त विनयवान हो तब औरस के समान समझा जाता है ।।५८॥ अप्रजा मनुजः स्त्री वा गृह्णीयाद्यदि दत्तकम् । तदा तन्मातृपित्रादेर्लेख्यं वध्वादिसाक्षियुक् ॥५-८।। राजमुद्रांकितं सम्यक कारयित्वा कुटुम्बजान् । ततो ज्ञातिजनांश्चैवाहूय भक्तिसमन्वितम् ॥६०॥ सधवा गीततूर्यादिमंगलाचारपूर्वकम् । गत्वा जिनालये कृत्वा जिनाग्रे स्वस्तिकं पुनः ॥६१।। प्राभृतं च यथाशक्ति विधाय स्वगुरुं तथा। नत्वा दत्त्वा च सदानं व्याघुट्टा निजमन्दिरम् ।।२।। प्रागत्य सर्वलोकेभ्यस्तांबूलश्रीफलादिकम् । दत्त्वा सत्कार्यस्वस्रादीन वस्त्रालंकरणादिभिः ।।६३।। आहूतस्वीयगुरुणा कारयेऽज्जातकर्म सः । ततो जातोऽस्य पुत्रोऽयमिति लोकनि गद्यते ॥६४॥ अर्थ-निःसन्तान ( अपुत्र) पुरुष वा स्त्री किसी बालक को दत्तक पुत्र बनावे तो उस बालक के माता पिता से एक लेख लिखवा ले और उस पर उसके कुटुम्बी जनों की गवाही करावे और राजा की मुहर करा ले। और भक्तिपूर्वक बन्धु जन तथा अन्य सम्बन्धियों को बुलावे । सुहागिनी स्त्रियाँ मङ्गलगान करें तथा अन्य प्रकार के मङ्गल कार्य हों, बाजा बजाते गाते जिनालय में जायँ और भगवान के सम्मुख स्वस्तिक रचकर यथाशक्ति द्रव्य भेंट चढ़ा स्वगुरु की वन्दना कर सुपात्रों को दान दे। फिर घर आये एकत्रित हुए बन्धुजनों के सम्मानार्थ ताम्बूल और श्रीफल तथा निज भगिनियों को वस्त्राभूषण दे सत्कार करे। अपने गुरु को बुलाकर उससे विधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200