________________
सब्बं सब्बस मदं जहा तहा दाय भायम्मि ।
और जो सबके फायदे के लिए हो । अभाव में धन का स्वामी राजा होगा, का नहीं ||३६||
सब्बेसिं हि अहावे पुहूणिवा वित्त वंभ विद्या ।। ३८ ।। अर्थ-बाँट इस प्रकार से करनी चाहिए जो सबको स्वीकृत हो इन ( उपर्युक्त ) दायादों के परन्तु ब्राह्मण के धन
बंस जंधणं विहु तस्सहु भज्जाहि विभया अणे | जिट्ठे गयेहु भायरि तहिय कणिट्टे विभत्त स दब्बे ॥ ४० ॥ अर्थ-यह निश्चय है कि ब्राह्मण के धन की अधिकारिणी उसकी स्त्री होगी और उसके अभाव में कोई ब्राह्मण ही स्वामी होगा । और ज्येष्ठ भाई की मृत्यु पर उसके छोटे भाई उसका धन बाँटलें ॥ ४० ॥
सोयरबंधु वग्गो गेहदु तेसिं धण कमसेा ।
पडिदो पंगू वहिरो उम्मत्तो संद कुज्ज अंधाय ॥ ४१ ॥ बिसई जडोय कोही गूँगो रुग्गोय पयडूलो ।
विसणी अभक्खभाई एदेसि भाग जुग्गदो पत्थि ।। ४२ ।। भुति बसण जणिता परंतु जस्सा विकस्सावि ।
मंत सहाइ शुद्धा एदेसिं भाग जोगदा अस्थि || ४ ३ || अर्थ-यदि उसके कोई भाई-बन्धुजन ( वारिस ) नहीं हैं तो उसके दायाद उपर्युक्त क्रमानुसार होंगे । पतित, पंगु, बधिर, उन्मत्त, नपुंसक, कुबड़ा, अन्धा, विषयी, पागल, क्रोधी, गूँगा, रोगी, बैरी, सप्तकुव्यसनी, अभक्ष्यभोजी, ऐसा व्यक्ति भाग नहीं पाता । भोजनवस्त्र से उनका भरण-पोषण करना चाहिए। और यदि वे मन्त्रादि से अच्छे हो जायें तो उनमें दाय - अधिकार की योग्यता होती है ॥ ४१—४३ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org