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अर्थ — विभाग के पश्चात् जो पुत्र उत्पन्न हो वह पिता के भाग का द्रव्य ही ले सकता है, अधिक नहीं । यदि वह बहुत छोटा हो तो उसका विवाह उसके भाइयों को करना चाहिए ||१०-६|| पुत्रस्याप्रजसेा द्रव्यं गृह्णीयात्तद्वधूः स्वयम् ।
तस्यामपि मृतायां तु सुतमाता धनं हरेत् ॥ ११० ॥
अर्थ-स्वपुत्रोत्पत्ति के बिना ही यदि पुत्र मर जाय ते। उसके द्रव्य को उसकी स्त्री ले | उसके भी मर जाने पर पुत्र की माता ले ॥११०॥
ऋणं दत्वाऽवशिष्टं तु विभजेरन् यथाविधि । अन्यथेोपायेते द्रव्यं पितृपुत्रैः ससाहसैः ॥ १११ ॥
अर्थ---ऋण देकर जो बचा हो उसका यथाविधि विभाग कर्तव्य है; यदि कुछ न बचे तो पिता और पुत्रों को साहसपूर्वक कमाना चाहिए ।। १११ ॥
कूपालङ्कारवासांसि न विभाज्यानि कोविदैः ।
गोधनं विषमं चैव मन्त्रिदूत पुरोहिताः ।। ११२ ।।
अर्थ — कूप, अलङ्कार, वस्त्र, गोधन तथा अन्य भी मन्त्री दूत पुरोहितादि विषय व द्रव्यों का विभाग विद्वानों को करना नहीं चाहिए ।। ११२ ।। पुत्रश्चेज्जीवता: पित्रो तस्तन्महिला वसैौ ।
पैतामहे नाधिकृता भर्तृवच्च पतित्रता ।। ११३ ।। भर्तृमञ्चकरक्षायां नियता धर्मतत्परा |
सुतं याचेत श्वश्रू हि विनयानतमस्तका ॥ ११४ ॥ अर्थ-पिता-माता के जीते ही पुत्र मर गया हो तो उसकी सुशीला स्त्री का पैतामह के धन पर अधिकार नहीं हो सकता, किन्तु पतिव्रता, भर्त्ता के शयन का रक्षण करती, धर्मतत्पर, विनय से मस्तक नीचा कर श्वश्रू से पुत्र की याचना करे ।। ११३—११४ ॥
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