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को गोद लेकर उसको उचित है कि वह सब कार्य सास की आज्ञा के अनुकूल करे, क्योंकि मास माता समान होती है || ३५ – ३६ ॥ पितृद्रव्याविनाशेन यदन्यत्स्वयमर्जितम् ।
मैत्रमौद्वाहिकं चैवान्यद्भ्रातॄणां न तद्भवेत् ||३७|| पितृक्रमागतं द्रव्यं हृतमप्यानयेत्परैः || दायादेभ्यो न तद्दद्याद्विद्यया लब्धमेव च ॥ ३८||
अर्थ — अनेक भाइयों में से एक भाई पिता के द्रव्य को विनाश न करता हुआ स्वयं चाकरी, युद्ध, विद्या द्वारा धन उपार्जन करे वा विवाह में या मित्र से पावे अथवा पिता के समय का डूबा हुआ धन निज पराक्रम से निकाले उसमें किसी का कुछ भाग न होगा ।। ३७ --- ३८ ॥
विवाहकाले पतिना पितृपितृव्यभ्रातृभिः ।
मात्रा वृद्धभगिन्या वा पितृश्वसा यदर्पितम् ||३६|| वस्त्रभूषणपात्रादि तत्सर्वं स्त्रीधनं मतम् ।
तत्तु पञ्चविध प्रोक्तं विवाहसमयदिनम् ||४०||
अर्थ - विवाह के समय पति तथा पति के पिता तथा स्वपिताचाचा, भाई, माता, वृद्ध भगिनी अथवा बुवा ने वस्त्र आभूषण पात्रा दिक जो दिया वह सब स्त्री-धन अध्यग्नि है । यह पाँच प्रकार का होता है | विवाह के दिन का दिया होता है ॥ ३८-४०॥
पितृगृहात्पुनर्नीतं कन्याया भूषणादिकम् ।
अध्याह्ननिकं प्रोक्तं भातृबन्धुसमक्षकम् ||४१॥
अर्थ – जो आभूषण आदि पिता के घर से कन्या भाई-बन्धुजन के सम्मुख लावे वह अध्यावनिक कहलाता है ||४१ ||
दत्तं प्रीत्या च यत्वश्वा भूषणादि श्वशुरेण वा । मुखेक्षण त्रिग्रहणे प्रीतिदानं तदुच्यते ||४२||
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