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इन्द्रनन्दि जिनसंहिता पणमिय वीर जणे दं णाउण पुराकयं महाधम्म । सउवासुज्झयणंगं दायवि मागं समासदो वात्थे ।।१।।
अर्थ-श्री महावीर स्वामी ( वर्द्धमान जिनेन्द्र ) को नमस्कार करके और उपासकाध्ययन से प्रथम कहा हुआ धर्म जानके उसी के अनुकूल संक्षेप से मैं दायभाग कहूँगा ॥१॥
पुत्तो पित्त धणेहिं ववहारे जं जहाय कप्पेई । पोतो दायविभागो अप्पडि बहोस पडिवं हो ॥२॥
अर्थ-पुत्र पिता के धन को व्यवहार से इच्छानुसार बरतता है। पोता उसको प्राप्त करता है चाहे वह अप्रतिबन्ध हो चाहे सप्रतिबन्ध ।।२॥
जीवदु भत्ता जं धणु णिय भज सं पडुव्व सं दिणणं . भुंजीद थावरं विणु जहेत्थु सातस्स भोयरिहि ॥३॥
अर्थ-और जो कि स्वामी (पति) ने अपने जीते स्वभार्या (निज स्त्री) को जंगम धन (माल मन कृला) प्रेम से दिया हो वह उसको इच्छानुसार भोग सकती है, परन्तु स्थावर जायदाद को नहीं ।।३।।
रयण धण धण्ण जाई सब्बस्स हवे पदू पिदा मुक्खा । थावर धणस्स सम्बस्स इत्थि पिदा पिदा महापावि ।।४।।
अर्थ-सर्व रत्न, मवेशी, धान्य आदि का स्वामी मुख्य पिता है, परन्तु सम्पूर्ण स्थावर धन का स्वामी पिता या पितामह नहीं हो सकता ॥४॥
संदे पितामहे जे थावर वत्थूण कोवि संदिट्टैं। जं प्राभरणं वत्थं जहेत्थु तं विभायरिहा ।।५।।
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