________________
श्रीवर्द्धमान-नीति प्रणम्य परया भक्त्या वर्धमानं जिनेश्वरम् । प्रजानामुपकाराय दायभागः प्रवक्ष्यते ॥ १॥
अर्थ-उत्कृष्ट भक्ति से श्रोवर्द्धमान जिनेश्वर को नमस्कार कर प्रजा के उपकार के लिए दायभाग का स्वरूप कहता हूँ॥ १ ॥
औरसो निजपत्नीजस्तत्समो दत्तकः स्मृतः । इमा मुख्यौ पुनर्दत्त क्रोतसौतसहोदरा: ॥ २ ॥ इमे गौणाश्च विज्ञया जैनशास्त्रानुसारतः । इतरे नैव दायादाः पिण्डदाने कदाचन ॥ ३ ॥ उत्पन्ने त्वौरसे पुत्रे चतुर्थांशहराः सुताः । सवर्णा असवर्णास्ते भुक्तयाच्छादनभागिनः ॥ ४ ॥
अर्थ-निज पत्नी से उत्पन्न लड़का औरस पुत्र है और उसी की भाँति दत्तक (अर्थात् दिया हुआ, गोद लिया हुआ ) लड़का होता है। यह दोनों पुत्र मुख्य हैं। फिर दत्त, क्रीत, सौत और सहोदर जैन-शास्त्र के अनुसार गौणपुत्र हैं। इनके अतिरिक्त और कोई पुत्र दायाद नहीं हैं, और न पिण्डदान कर सकते हैं ( अर्थात् नस्ल नहीं चला सकते हैं)। औरस पुत्र के उत्पन्न होने पर यदि वह पिता के वर्ण की माता से उत्पन्न हुआ है ( गोद के ) पुत्र को चौथाई भाग दिया जाता है। यदि औरस पुत्र अन्य वर्ण की माता से उत्पन्न हुआ है तो वह केवल रोटी-कपड़ा पाता है ॥ २-४ ।।
नोट-अन्य वर्ण से अभिप्राय यहाँ केवल शूद्राणी स्त्री से है। गृहीते दत्तके पुत्र धर्मपत्न्यां प्रजायते । स एवोष्णीषबन्धस्य योग्यः स्यादत्तकस्तु सः ।। ५ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org