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अपने से उमर में बड़ी हो, अपने शरीर से ऊँची हो तथा गुरु की पुत्री हो तो इनके साथ विवाह न करें। क्योंकि ये माता के समान मानी गई हैं ।। ४० ॥
वाग्दानं च प्रदानं च वरणंपाणिपीडनम् । सप्तपदोति पञ्चाङ्गो विवाहः परिकीर्तितः ।। ४१ ।।
वाग्दान, प्रदान, वरण, पाणिग्रहण और सप्तपदी, ये विवाह के पाँच अङ्ग कहे गये हैं ।। ४१ ।।
नाट-वाग्दान सगाई को कहते हैं, प्रदान ज़ेवर और कपड़े वगैरह का वर का तरफ़ से कन्या को भेंट करना होता है। वरण वर और कन्या के वंश का वर्णन है जो विवाह के समय होता है। पाणिग्रहण या पाणिपीड़न हाथ मिलाने को कहते हैं और सप्तपदी भाँवर है।
ब्राह्मो दैवस्तथा चार्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः । गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधर्मः ।। ७० ।।
ब्राह्म विवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह और प्राजापत्य विवाह, ये चार धर्म्य विवाह हैं। और आसुर विवाह, गान्धर्व विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह, ये चार अधर्म्य विवाह हैं। एवं विवाह के आठ भेद हैं ।। ७० ॥
आच्छाद्य चाहयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् । आहूय दानं कन्याया: ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ।। ७१ ।। विद्वान् और सदाचारी वर को स्वयं बुलाकर उसको और कन्या को बहुमूल्य आभूषण पहनाकर कन्या देने को ब्राह्म विवाह कहते हैं । ७१ ॥
यज्ञ तु वितते सम्यक् जिनार्चाकर्म कुर्वते । अलंकृत्य सुतादानं दैवो धर्म : प्रचक्ष्यते ।। ७२ ।।
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