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अर्थ-इन पाँच प्रकारों की सम्पत्ति स्त्रो-धन होती है। इसको दुभित, आपत्ति अथवा धर्म कार्य को छोड़कर किसी को भी लेना उचित नहीं है ॥ ६॥
पैतामहधनाकिञ्चिद्दातु वाञ्छति सप्रजाः । भगिनीमागिनेयादिभ्यः पुत्रस्तु निषेधति ।। ६१ ।।
अर्थ-बाबा के द्रव्य में से यदि कोई व्यक्ति अपनी भगिनी या भानजे आदि को कुछ देना चाहे तो उसका पुत्र उसको रोक सकता है ॥ ६१ ।।
बिना पुत्रानुमत्या वै दातुं शक्तो न वै पिता। मृते पितरि पुत्रस्तु ददत्केन निरुध्यते ।। ६२ ।।
अर्थ-पुत्र की सम्मति बिना पिता को निःसन्देह जायदाद के दे डालने का अधिकार नहीं है, और पिता के मरने पर पुत्र देता हुआ किससे रोका जा सकता है ? ॥ ६२ ।।
गृहीते दत्तके पुत्रो धर्मपत्न्यां प्रजायते । स एवोष्णीषबन्धस्य योग्यः स्याहत्तकस्तु सः ।। ६३ ॥ चतुर्थाशं प्रदाप्यैव भिन्नः कार्योऽन्यसाक्षितः । प्रागेवोष्णीषबन्धे तु जातोऽपि समभाग्भवेत् ।। ६४ ॥
अर्थ-दत्तक पुत्र लेने के पश्चात् यदि औरस पैदा हो तो वही शिरोपाह बन्धन के योग्य है। दत्तक को चतुर्थ भाग देकर गवाहों के सम्मुख अलग कर देना चाहिए। यदि औरस पुत्र उत्पन्न होने से पूर्व ही शिरोपाह बँध गया हो तो दत्तक समान भाग का भोक्ता होता है ।। ६३-६४ ॥
पतेरप्रजसो मृत्यौ तद्रव्याधिपतिर्वधूः । दुहितृप्रेमतः पुत्रं न गृह्णीयात्कदाचन ॥६५॥
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