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हत्वा भित्वा च छित्वा च क्रोशन्तीं रुदन्तीं गृहात् । प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ॥ ७७ ॥
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कन्या के पक्ष के लोगों को मारकर, उनके अङ्गोपाङ्गों को छेदउनके प्राकार ( परकोटा ) दुर्ग आदि को तोड़-फोड़कर चिल्लाती हुई और रोती हुई कन्या को ज़बर्दस्ती से हरण करना राक्षस विवाह है || ७७ ॥
सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति ।
स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचः कथितोऽष्टमः ॥ ७८ ॥
सोई हुई, नशे से चूर, अपने शील की संरक्षा से रहित कन्या के साथ एकान्त में समागम करके विवाह करना पैशाच विवाह है जो पाप का कारण है । यह आठवीं किस्म का विवाह है || ७८ || पिता पितामहो भ्राता पितृव्यो गोत्रिणो गुरुः ।
मातामहो मातुलो वा कन्याया बान्धवाः क्रमात् ॥ ८२ ॥
पिता, पितामह, भाई, पितृव्य ( चाचा ), गोत्रज मनुष्य, गुरु, माता का पिता और मामा ये कन्या के क्रम से बन्धु ( वली ) हैं ॥८२॥ पित्र्यादिदानभावे तु कन्या कुर्यात्स्वयंवरम् ।
इत्येवं केचिदाचार्याः प्राहुर्महति सङ्कटे ॥ ८३ ॥
विवाह करनेवाले पिता, पितामह आदि न हो, तो ऐसी दशा में कन्या स्वयं अपना विवाह करे। ऐसा कोई-कोई प्राचार्य कहते हैं यह विधि महासंकट के समय समझना चाहिए ॥ ८३ ॥
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तावद्विवाहो नैव स्याद्यावत्सप्तपदी भवेत् ।
तस्मात्सप्तपदी कार्या विवाहे मुनिभिः स्मृता ॥ १०५ ॥
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जब तक सप्तपदी (भांवर) नहीं होती तब तक विवाह हुआ नहीं कहा जाता इसलिए विवाह में सप्तपदी अवश्य होनी चाहिए, ऐसा मुनियों का कहना है ॥ १०५ ॥
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