________________
अर्थ-उन नियमों के अभाव में जो आगे कहे जायेंगे पुत्र के सदृश पुत्रिका मानी गई है और दायभाग तथा पिण्डदान (सन्ततिसञ्चालन ) के लिए पुत्रों के समान दौहित्र माने गये हैं ॥ २५ ॥
नोट-यह नियम ( कायदे ) इस पुस्तक में नहीं मिलते हैं जिससे प्रकट होता है कि यह शास्त्र अधूरा है और किसी बड़े शास्त्र के आधार पर लिखा गया है। परन्तु विर्सा का कानून वर्धमाननीति आदि अन्य शास्त्रों में दिया हुआ है।
आत्मा वै जायते पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा। तस्यामात्मनि तिष्ठंत्यां कथमन्यो धनं हरेत् ॥ २६ ॥
अर्थ-प्रात्म-स्वरूप पुत्र होता है और पुत्र के समान पुत्री है, तो फिर उस आत्मरूप पुत्री की उपस्थिति में दूसरा कोई धन का हरण कैसे कर सकता है ? ॥२६॥ ..
ऊढानूढाऽथवा कन्या मातृद्रव्यस्य भागिनी । अपुत्रपितृद्रव्यस्याधिपो दौहित्रको भवेत् ॥ २७ ॥
अर्थ-माता के द्रव्य की भागिनी कन्या होती है, चाहे वह विवाहित हो अथवा अविवाहित, और पुत्र-रहित पिता के द्रव्य का अधिकारी दौहित्र होता है ॥२७॥
न विशेषोऽस्ति लोकेऽस्मिन् पौत्रदौहित्रयोः स्मृतः । पित्रोरेकत्रमसम्बन्धाजातयोरेकदेहतः ॥२८॥
अर्थ-( क्योंकि ) इस लोक में माता-पिता के एकत्र सम्बन्ध से उत्पन्न हुए एक देह रूप जो पुत्र और पुत्री हैं, उनसे उत्पन्न हुए पौत्र और दौहित्र में कुछ विशेषता ( अर्थात् भेद ) नहीं जानना चाहिए ॥ २८॥
ऊढपुत्र्यां परेतायामपुत्रायां च तत्पतिः । स स्त्रीधनस्य द्रव्यस्याधिपतिस्तत्पतिः सदा ।।२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org