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पङ्गुरुन्मत्तक्ली वान्धखल कुब्जजडास्तथा ।
एतेऽपि भ्रातृभिः पोष्या न च पुत्रांशभागिनः ॥ ७० ॥ अर्थ-यदि भाइयों में से कोई लँगड़ा, पागल तथा उन्मत्त, क्लीव, अन्धा, खल (दुष्ट), कुबड़ा तथा सिड़ी होवे तो अन्य भाइयों को अन्न-वस्त्र से उसका पोषण करना चाहिए । परन्तु वह पुत्र भाग का मालिक नहीं हो सकता ।। ७० ।।
मृतवध्वाधिकारीशो बोधितव्यो मृदूक्तितः ।
न मन्येत पुरा भूपामात्यादिभ्यः प्रबोधयेत् ॥ ७१ ॥
भूयोऽपि तादृशः स्याच्चेदमात्याज्ञानुसारतः ।
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पुरातना नूतनो वा निष्कास्यो गृहतः स्फुटम् ।। ७२ ।।
अर्थ - मृत पति की विधवा स्त्री अपने द्रव्य के अधिकारी को
कोमल वचन से समझावे, यदि नहीं माने तो राजा, मन्त्री आदिक के समक्ष उसको समझावे । यदि फिर भी नहीं समझे तो मन्त्री की आज्ञा लेकर पुराना हो वा नवीन हो उसे घर से निकाल दे ॥ ७१-७२ ।। रक्षणीयं प्रयत्नेन भर्त्रिक स्व कुलस्त्रिया ।
कार्यतेऽन्यजनैर्योग्यैर्व्यवहारः कुलागतः ॥ ७३ ॥
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अर्थ — अपने पति के समान कुलीन स्त्री को अपने द्रव्य का यत्नपूर्वक रक्षण करना चाहिए और कुलक्रम के अनुसार अपने व्यवहार को भी दूसरे योग्य पुरुषों द्वारा चलाना चाहिए ।। ७३ ।। कुर्यात् कुटुम्बनिर्वाहं तन्मिषेण च सर्वथा ।
येन लोके प्रशंसा स्याद्धनवृद्धिश्च जायते ॥ ७४ ॥
- इसी प्रकार से उसे चाहिए कि सर्वथा कुटुम्ब का निर्वाह करे; जिससे लोक में कीर्ति और धन की वृद्धि हो ॥ ७४ ॥ ग्राह्यः सद्गोत्रज: पुत्रो भर्ता इव कुलस्त्रिया । भर्तृस्थाने नियोक्तव्यो न श्वश्वा खपतेः पदे ।। ७५ ।। .
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