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से गुज़ारे और विवाह-व्यय के अतिरिक्त कोई भाग पाने की अधिकारी नहीं है (१२२)।
विभाग की विधि प्रथम ही तीर्थकर भगवान की पूजा ( मन और भावों की शुद्धता के निमित्त ) करना चाहिए। इसके पश्चात् कुछ प्रतिष्ठित मनुष्यों के समक्ष अविभाजित सम्पत्ति का अनुमान कर लेना चाहिए और उसमें से पुत्र का भाग निकाल देना चाहिए ( १२३)। इसी प्रकार अन्य भाग भो लगा लेने योग्य हैं। यदि पिता ने स्वार्थवश या द्वेष भाव से अपनी स्त्रियों के या अयोग्य दायादों के स्वत्वों की ओर ध्यान नहीं दिया है, या विभाग में कोई अन्याय किया गया है तो वह अमान्य होगा ( १२४)। परन्तु यदि विभाग धर्मानुकूल किया गया है तो वह मान्य होगा, चाहे किसी को कुछ कम ही मिला हो (१२५)। वास्तव में विभाग अधर्म और अन्याय से न होना चाहिए (१२५)। ऐसे पिता का किया हुआ विभाग अयोग्य होगा जो अत्यन्त अशान्त, क्रोधी, अति वृद्ध, कामसेवी, व्यसनी, असाध्य रोगी, पागल, जुआरी, शराबी आदि हो (१२६) । यदि बड़ा भाई विभाग करते समय कुछ सम्पत्ति कपट करके छोटे भाइयों से छिपा ले तो वह दण्डनीय होगा और अपने भाग से वञ्चित किया जा सकता है ( १२७ )। यदि भाइयों में सम्पत्ति
( १२२ ) भद्र० १६; वर्ध० ६; अहं० २५ । ( १२३ ) त्रैव० अध्याय १२ श्लो० ६ । (१२४ ) इन्द ० ११-१२ । ( १२५ ) अहं ० १७ ॥ (१२६ ) " १८-१६। ( १२७ ) भद ० १०७; अहं० ११६ ।
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