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हम यह भी पूछ सकते हैं कि यदि मुसलमानों और ईसाइयों के मुकदमे भी हिन्दू नीति के अनुसार फैसल कर दिये जावें तो क्या हानि है। इस प्रकार किसी अन्य मत की नीति की पाबन्दो से शायद कोई व्यक्ति सांसारिक विषयों में कोई विशेष हानि न दिखा सके । परन्तु स्वतन्त्रता के इच्छुकों को स्वयं ही विदित है कि प्रत्येक रीति क्रम (system) एक ऐसे दृष्टिकोण पर निर्भर होता है कि जिसमें किसी दूसरी रीति क्रम ( system ) के प्रवेश कर देने से सामाजिक विचार और प्राचार की स्वतन्त्रता का नाश हो जाता है और व्यर्थ हानि अथवा गड़बड़ी के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं होता। इतना कह देना भी यथेष्ट न होगा कि रिवाजों के रूप में ही जैन-नीति के उद्देश्यों का पूर्णतया पालन हो सकता है और इसलिए अब तक जैसा होता रहा है वैसे ही होते रहने दो। क्योंकि प्रत्येक कानून का जाननेवाला जानता है कि किसी विशेष रिवाज का प्रमाणित करना कितना कठिन कार्य है। सैकड़ों साक्षो और उदाहरणों द्वारा इसके प्रमाणित करने की आवश्यकता होती है जो साधारण मुक़दमेवालों की शक्ति एवं छोटे मुकदमों की हैसियत से बाहर है। और फिर भी अन्याय का पूरा भय रहता है जैसा कि एक से अधिक अवसरों पर हो चुका है। समाज भी भयभीत दशा में रहता है कि नहीं मालूम मौखिक साक्षियों द्वारा प्रमाणित होनेवाले रिवाजविशेष पर न्यायालय में क्या निर्णय हो जाय । यदि कहीं फैसला उलटा पलटा हो गया तो अशांति और भी बढ़ जाती है, क्योंकि यह ( निर्णय ) वास्तविक जाति रिवाज के प्रतिकूल हुआ । किसी साधारण मुकदमे में अन्याय हो जाना यद्यपि दोषयुक्त है किन्तु उससे अधिक हानि की सम्भावना नहीं है क्योंकि उसका प्रभाव केवल विपक्षियों पर ही पड़ता है। परन्तु साधारण रिवार्जा
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