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अध्याय 1]
संपादक का अभिमत मूर्तिकला विषयक संकल्पनाओं का अन्य दिशाओं में भी पारस्परिक प्रभाव पड़ा। वैसे धर्मचक्र की संकल्पना जैनधर्म और बौद्धधर्म' दोनों ही में समान रही होगी, किन्तु हिरन के पार्श्व में उसे प्रदर्शित करने का चलन केवल बौद्धों में ही विशेष रूप से था, जो कि मृगदाव में बुद्ध के प्रथम धर्मोपदेश के दृश्य का स्मरण दिलाता था। यों मध्ययुगीन तीर्थंकर प्रतिमाओं में भी हम यह संयोग पाते हैं । खण्डगिरि की गुफा-८ में गणेश मूर्ति से पहले सात यक्षियों का दृश्य ब्राह्मणधर्म की सप्तमातृका-समूह का स्मरण कराता है; और जिला पुरुलिया के पाकवीर नामक स्थान (अध्याय १५) में प्राप्त तीर्थंकर के पाद-पीठ पर लिंग की विद्यमानता धार्मिक और मूर्तिकला विषयक समन्वय की अपनी कहानी कहते हैं। और, न ही ऋषभनाथ और शिव का जटा और बैल से संबंधित होना बिलकुल ही आकस्मिक है।
संभवत: लोहानीपुर की मौर्यकालीन तीर्थंकर प्रतिमाएँ एक ऐसे ईंट-निर्मित जिनालय में प्रतिष्ठित की गयी थीं जिसके स्वरूप के बारे में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। मथरा के प्राचीन ऐतिहासिक जिनालय आज हमें अपने टूटे-फूटे भागों की विद्यमानता से ही ज्ञात हैं (अध्याय ६) । जिस काल से हमें पूर्ण रूप से निर्मित मंदिर मिलते हैं, उन्हें हम अन्य धर्मों के मंदिरों की प्रायोजना और शिल्प से भिन्न नहीं पाते । और, न ही शिल्पशास्त्रों में यह बताया गया है कि जैन मंदिरों की कौन-सी अपनी भवन-निर्माण संबंधी विशेषताएँ होती हैं, क्योंकि स्पष्टतः ऐसा विवरण देने की आवश्यकता ही नहीं थी।
यह ठीक है कि जैन, ब्राह्मण और बौद्ध मंदिरों में जो अंतर परिलक्षित होता है वह स्वभावतः मुख्य मंदिर में प्रतिष्ठित देवता, पार्श्ववर्ती देवी-देवता तथा अपनी-अपनी पौराणिक कथाओं के अनुसार मूर्तियों के तक्षण आदि के कारण होगा ही, किन्तु निर्माण संबंधी कोई वास्तविक अंतर नहीं है जो संप्रदाय विशेष की मान्यताओं एवं परंपराओं के कारण ही हो । उदाहरणार्थ, खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर की योजना वहाँ के ब्राह्मण्य मंदिरों से भिन्न हो सकती है, किन्तु वहाँ के ब्राह्मण्य मंदिर स्वयं भी एक दूसरे से भिन्न हैं। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मंदिरों की योजनाओं में जो भिन्नता है, वह पूजा की विभिन्न पद्धतियों के कारण है, जैसा कि कुछ लोगों का मत है। उक्त स्थान के सभी मंदिरों पर खजुराहो-कला की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है ।
1 कहा जाता है कि ऋषभनाथ ने तक्षशिला में धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था इसलिए कुछ विद्वानों के अनुसार यह
मुख्यतः एक जैन प्रतीक है। [ कान्तिसागर. खण्डहरों का वैभव. द्वितीय संस्करण. बनारस. 1959. पृ 59] किन्तु इस आख्यान का जिसमें यह कथा भी सम्मलित है कि ऋषभदेव ने यवन देश (प्रायोनिया, पश्चिमी एशिया का एक यूनानी देश) का भ्रमण किया था, पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक तथ्यों से खण्डन होता है क्योंकि पुरातात्विक दृष्टि से तक्षशिला छठी-पाँचवीं शती ई० पू० से पहले अस्तित्व में नहीं आया था और आयोनियाराज्य आठवीं-सातवीं शती से पहले स्थापित नहीं हुआ था, जबकि अनुश्रुति यह है कि ऋषभनाथ अत्यन्त प्राचीन
युग में हुए थे. 2 ज़न्नास (एलिकी) तथा अोबोये (जीनीन). खजुराहोज' ग्रेवेनहागे. 1960. Y 147-48. लेखक स्वयं
ही यह स्वीकार करते हैं कि खजुराहो में स्थित जैन मंदिरों में भी परस्पर शिल्पगत अंतर है.
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