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जैन धर्म का प्रसार
अध्याय 3 ]
इस राज्यवंश की
यही स्थिति होसलों (सन् ११०६-१३४३) के शासनकाल में थी। स्थापना का श्रेय ही एक जैन मुनि को दिया जाता है । बताया जाता है कि जैन धर्म एक लंबी अवधि तक निष्क्रिय रहा था, उसे प्राचार्य गोपीनंदि ने उसी प्रकार संपन्न एवं प्रतिष्ठित बना दिया था जैसा वह गंगों के शासनकाल में था । यह माना जाता है कि इस वंश के वीर बल्लाल- प्रथम ( सन् ११०१-०६ ) तथा नरसिंह - तृतीय ( सन् १२६३-६१ ) जैसे कई राजाओं के जैन धर्म के साथ घनिष्ठ संबंध थे ।
सुदूर दक्षिण में कुमारिल, शंकराचार्य तथा माणिक्क वाचकार जैसे ब्राह्मण धर्म के नेताओं का उदय होने पर भी कांची और मदुरा जैनों के सुदृढ़ गढ़ बने रहे । उत्थान - पतन की इस परिवर्तनशील प्रक्रिया में भी सुदूर दक्षिण और दक्षिणापथ सदैव दिगंबर जैन धर्म के गढ़ रहे। परंतु इसमें संदेह नहीं कि शैव धर्म के प्रबल विरोध का सामना करने के कारण म्राठवीं शताब्दी के लगभग जैन धर्म का प्रभाव शिथिल हो गया था । अप्पर और संवन्दार नामक शैव संतों के प्रभावाधीन पल्लव ( चौथी से दसवीं शताब्दी), तथा पाण्ड्य ( लगभग तीसरी शताब्दी से १२० ईसवी) राजाओं ने जैनों का उत्पीड़न किया । दीर्घकालोपरांत विजयनगर और नायक शासकों के काल में जैनों का शैवों एवं वैष्णवों के साथ समझौता हुआ, उदाहरणार्थ, बैलूर के बेंकटाद्रि नायक के शासनकाल के सन् १६३३ ई० के एक शिलालेख में हलेबिड में एक जैन द्वारा शिवलिंग का उच्छेद करने का उल्लेख है। परिणामस्वरूप एक सांप्रदायिक उपद्रव हुआ, जिसका निपटारा इस प्रकार हुआ कि वहाँ पहले शैवविधि से पूजा होगी, तदनंतर जैनविधि से ।"
मुसलमानों के आगमन के फलस्वरूप भारत के सभी धर्मों को प्राघात सहना पड़ा। इसमें जैन धर्म अपवाद नहीं था । तथापि कई ऐसे उदाहरण हैं जब किन्हीं - किन्हीं जैन आचार्यों ने व्यक्तिगत रूप से किसी-किसी मुसलमान शासक को प्रभावित किया, यद्यपि ऐसे उदाहरण गिने-चुने ही हैं। उदाहरणार्थ, यह कहा जाता है कि मुहम्मद गौरी ने एक दिगंबर मुनि का सम्मान किया था । यह भी कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी जैसे प्रबल प्रतापी शासक ने भी जैन आचार्यों के प्रति सम्मान व्यक्त किया था। मुगल सम्राट् अकबर को प्राचार्य हीरविजय ने प्रभावित किया था और उन्हीं के उपदेश से उसने कई जैन तीर्थों के निकट पशु-बध पर प्रतिबंध लगा दिया था तथा उन तीर्थों को कर से भी मुक्त कर दिया था । कुछ ऐसे भी साक्ष्य उपलब्ध हैं जिनसे ज्ञात होता है कि जहाँगीर ने भी कुछ जैन याचायों को प्रश्रय दिया था यद्यपि उसके द्वारा एक जैन अधिकारी को दंडित भी होना
एपीग्राफिया कर्नाटिका. 2. 1923 इंस्क्रिप्शन 69. पृ 31 और 34 इस कहीं सुदत्त वर्धमान नामक जैन मुनि को दिया गया है सालेतोरे (वी ए) रेफरेंस व विजयनगर एम्पायर बंबई. पू. 64-68.
2 एपीग्राफिया कर्नाटिका. 5. 1902. बेलूर तालुक इंस्क्रिप्शन 128 192.
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वंश की स्थापना का श्रेय कहींमिडीबल अनि विद स्पेशल
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