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अध्याय 14 ]
उत्तर भारत
महाकाली तथा वाग्देवी की प्राकृतियाँ दर्शायी गयी हैं। पश्चिम की ओर, पार्श्व में, यक्षी मूर्तियों के मध्य महाविद्या मानवी की प्राकृति है ।
द्वार-मण्डप की दो पंक्तियोंवाली फानसना-छत घण्टा द्वारा आवेष्टित है। इसके त्रिभुजाकार तोरणों की तीन फलकों में प्रत्येक पर देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गयी हैं। पूर्व की ओर महाविद्या काली, महामानसी और वरुण यक्ष की प्रतिमाएं हैं। उत्तर की ओर यक्ष सर्वानुभूति, आदिनाथ तथा अंबिका की प्रतिमाएँ हैं। पश्चिम की अोर देवियों द्वारा संपाश्वित महाविद्या रोहिणी की मूर्ति है।
गर्भगृह की भीतरी रचना सादी है, किन्तु उसमें तीन देव-कुलिकाएं निर्मित हैं, जो अब रिक्त हैं। गर्भगृह के द्वार के कलात्मक विवरण हाल में किये गये रंगलेप और शीशे की जड़ाई के कारण छिप गये हैं।
शाला के चारों स्तंभ मूल रूप से चौकोर हैं और उन्हें घट-पल्लव (बेल-बूटों), नागपाश और शाल कीतिमुखों द्वारा अलंकृत किया गया है। शाला के ऊपर की छत नाभिच्छंद शैली में निमित है और उसकी रचना सादे गजतालुओं द्वारा होती है । गूढ़-मण्डप की भित्तियों में पर्याप्त गहराई की दस देवकुलिकाएं हैं। उनमें से दो में कुबेर और वायु की प्राकृतियाँ हैं। गूढ़-मण्डप की प्रत्येक देवकुलिका के शीर्ष पर निर्मित भव्य चैत्य-तोरणों पर जैन देवताओं की प्राकृतियाँ निर्मित हैं । उत्तर-पूर्व से उत्तरपश्चिम की ओर क्रमावस्थित प्रदक्षिणा शैली में निर्मित इन देवताओं की प्रतिमाएँ रोहिणी, वैरोट्या, महामानसी और निर्वाणी का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रत्येक भद्र के सरदल के ऊपर स्थित फलक पर अनुचरों के साथ पार्श्वनाथ की प्रतिमा को दर्शाया गया है।
ऐसा विश्वास करने के लिए कारण हैं कि आठवीं शताब्दी में वत्सराज द्वारा निर्मित मूल मंदिर के अभिन्न अंग के रूप में वलाणक विद्यमान था और ६५६ ई० में स्तंभयुक्त कक्ष के अतिरिक्त निर्माण के साथ इसका नवीकरण कराया गया था ।
मूल महावीर-मंदिर प्रारंभिक राजस्थानी वास्तुकला का एक मनोरम नमूना है, जिसमें महान कला-गुण संपन्न मण्डप के ऊपर फानसना छत तथा जैन वास्तुकला के सहज लक्षणों से युक्त त्रिकमण्डप की प्राचीनतम शैली का उपयोग किया गया है। मुख्य मंदिर और उसकी देवकूलिकाएँ प्रारंभिक जैन स्थापत्य और मूर्तिकला के समृद्ध भण्डार हैं और देवकुलिकाएँ तो वास्तव में स्थापत्य कला के लघुरत्न ही हैं।
1 [तोरण, वलाणक तथा देवकुलिकाएं परवर्ती निमितियाँ हैं, इसलिए 1000 से 1300 तक की अवधि का
विवरण प्रस्तुत करनेवाले अध्याय में इनका निरूपण किया गया है--संपादक].
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