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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई०
[भाग 4 प्रांगण की दक्षिणी भित्ति पर शैलोत्कीर्ण गुफा-मंदिर है छोटा कैलास (गुफा ३०) जिसमें गर्भगृह, अंतराल एवं मुखमण्डप हैं । यह मंदिर सुमतिनाथ को समर्पित है। इसके अंतराल में पार्श्वनाथ, कुबेर तथा अंबिका की मूर्तियाँ हैं और मण्डप की भित्तियों पर अन्य मूर्तियाँ प्रचुर मात्रा में उत्कीर्ण हैं। इसके समीप एक ओर शैलोत्कीर्ण गुफा (गुफा ३० क) में केवल एक लम्बा कक्ष एवं कुम्भवल्ली
-शीर्ष प्रकार के स्तंभों का द्वार-मण्डप है। कक्ष के मध्य में एक चौमुखी जैन प्रतिमा है। कपोतों पर उड़ते हुए गंधर्व अंकित हैं और द्वार-मण्डप के दोनों ओर कक्षासन बने हैं।
हाल के उत्खनन में इस मंदिर-समूह से पूर्व की ओर कतिपय अपूर्ण मंदिर मिले हैं। इनमें अल्प महत्त्व की शिल्पाकृतियाँ हैं। उनमें से एक तीर्थकर की खड़गास ति है जिसके पीछे 'टिरुवाची' या प्रभामण्डल है जिसमें चौबीस तीर्थंकर अंकित हैं।
एलोरा की नरम काले पत्थर की चट्टान पर गुफा-मंदिरों का उत्खनन दसवीं शताब्दी में हुआ होगा, किंतु इसके अनंतर भी कुछ अलंकरण-कार्य हुआ प्रतीत होता है। मंदिर-स्थापत्य-कला की दृष्टि से, विशेषतः अपने वास्तुशिल्पीय अवयवों की परिपूर्णता के संदर्भ में, एलोरा की अन्य गुफाओं से ये मंदिर अधिक उत्कृष्ट हैं। क्योंकि अलंकरण, वेषभूषा, भंगिमा एवं मुद्रा के सौंदर्य को गौण देवताओं की प्रतिमाओं में ही अभिव्यक्त किया जा सकता था, अतएव इनके अंकन में कला-कौशल का बहत ध्यान रखा गया। तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ रीत्यानुसार समान मुद्रा एवं शैली में ही निर्मित होती थीं, अतः ये मूर्तियाँ उतनी सुदर नहीं बन पड़ी हैं । जैन वास्तु-स्मारकों के अलंकृत शिल्पांकन-प्राचुर्य में, कला-कौशल की पूर्णता में, विशेषतः स्तंभों की विभिन्न शैलियों में, सौंदर्य की पराकाष्ठा के दर्शन होते है। उनमें परिलक्षित है पाषाण को काटने-छाँटने का सूक्ष्म एवं यथार्थ कौशल; यद्यपि, अलंकरणसौंदर्य के होते हुए भी, इतना तो स्पष्ट है कि यह मंदिर किसी पूर्व-निश्चित योजनानुसार उत्खनित नहीं किये गये और लगता है कि जब जैसे बना वैसे ही काम चलाया गया है । फिर भी, सच तो यह है कि शास्त्रीय रूपवान चित्रांकनों से सज्जित ये मंदिर भारत की कलात्मक देन का महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
शलोत्कीर्ण मंदिर
दक्षिण में तथा अन्यत्र गुफा-मंदिरों के उत्खनन की परंपरा लगभग एक सहस्र वर्ष प्राचीन है। गुफा-मंदिरों की आंतरिक तथा बाह्य रचना ईंट तथा लकड़ी से निर्मित सम-सामयिक भवनों की प्रांतरिक एवं बाह्य रचना का सर्वोत्तम प्रतिरूप है। ठीक यही स्थिति विमान-मंदिरों की भी है। गफामंदिरों के उत्खनन के साथ-साथ ही विमान शैली के मंदिरों का उत्खनन प्रारंभ हुआ, यद्यपि उनका उत्खनन अपेक्षाकृत अल्प संख्या में ही था। पल्लवनरेश नरसिंहवर्मन-प्रथम मामल्ल (६३०-६६८) ने सर्वप्रथम स्थानीय कठोर स्फटिकवत् (ग्रेनाइट) नाइस पत्थर की चट्टानों को काटकर विविध रूपरेखा और विस्तार के शैलोत्कीर्ण मंदिरों का सूत्रपात कराया जिसका सुंदर उदाहरण महाबलीपुरम के रथ-मंदिरों
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