Book Title: Jain Kala evam Sthapatya Part 1
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 331
________________ अध्याय 16 ] पश्चिम भारत अकोटा, वलभी, वसंतगढ़ और भिनमाल में उपलब्ध जैन प्रतिमाओं से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि छठी-सातवीं शताब्दियों में इन स्थानों पर जैन मंदिर विद्यमान थे । अकोटा से प्राप्त सातवीं शताब्दी की अभिलेखांकित पार्श्वनाथ की प्रतिमा के लेख से ज्ञात होता है कि यह मूर्ति रथवसतिका में प्रस्थापित की गयी थी। इसी स्थान से प्राप्त और लगभग सन् १००० की एक अन्य अभिलेखांकित ऋषभनाथ की प्रतिमा के लेख से ज्ञात होता है कि वह द्रोणाचार्य द्वारा अंकोट्टक-वसतिका में प्रस्थापित की गयी थी। इस प्रकार रथ-वसतिका और अंकोट्टक-वसतिका अकोटा स्थित जैन मंदिरों के नाम थे, जहाँ अभिलेखों के अनुसार लगभग छठी शताब्दी के प्रमुख जैनाचार्य जिनभद्र वाचनाचार्य द्वारा भी प्रतिमाएं स्थापित की गयीं। जैन साहित्य से ऐसे अनेक जैन मंदिरों के अस्तित्व का संकेत मिलता है, जो आज नष्ट हो चुके हैं। बताया जाता है कि वनराज-चापोत्कट ने पंचासर के तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा हेतु अनहिलबाड़ पाटन में वनराज-विहार की स्थापना करायी थी, जहाँ उसके मंत्री निन्नय ने, जो राज्यपाल विमल का पूर्वज था, सन् ७४६ के लगभग तीर्थंकर ऋषभनाथ की प्रतिष्ठा में एक मंदिर बनवाया था। निन्नय ने चंद्रावती में भी एक जैन मंदिर का निर्माण कराया था। लगभग उसी अवधि में वटेश्वर-सूरी की प्रेरणा से उत्तर-पश्चिम गुजरात के थराड नामक स्थान पर ऋषभ-मंदिर का निर्माण किया गया। जिनसेन ने अपने हरिवंश पुराण नामक ग्रंथ का लेखन सन् ७८३ में वर्धमान (वध्वन) स्थित पार्श्वनाथ मंदिर (नन्न राजवसति) में रहकर किया था। इस ग्रंथ में दोस्ततिका स्थित शांतिनाथ के मंदिर और गिरनार पहाड़ी पर स्थित अंबिका के मंदिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी में प्रभास नामक स्थान पर तीर्थंकर चंद्रप्रभ के दिगंबर और श्वेतांबर मंदिर विद्यमान थे। दिगंबर आम्नाय ने ऊन नामक नगर में पार्श्वनाथ-मंदिर तथा खंभात में एक अन्य जैन मंदिर का निर्माण कराया था। बताया जाता है कि उद्योतन-सूरि के पूर्ववर्ती यक्षदत्त-गणि ने पश्चिम भारत में जैन मंदिरों का निर्माण कराया जिनमें भिनमाल के मंदिर भी सम्मिलित हैं। उद्योतन-सूरि ने अपने कुवलय-माला नामक ग्रंथ का समापन सन् ७७६ में जालौर स्थित आदिनाथ के अष्टापद-प्रासाद में किया था। हरिभद्र-सूरि के समय आठवीं शताब्दी में चित्तौड़ में अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हया था। जयसिंह-सूरि (सन् ८५६) के अनुसार नागौर में भी जैन मंदिर विद्यमान थे। मध्यकाल के पूर्वार्ध में पश्चिम भारत के विभिन्न राज्य-वंशों के शासकों में जैन धर्म को संरक्षण देने तथा जैन मंदिरों के निर्माण और उनके संचालन के लिए अनुदान देने में प्रतिस्पर्धा रहा करती थी। प्रतीहार नागभट-प्रथम (लगभग ७५०-५६) ने जालौर में अपने गुरु यक्षदत्त-गणि के सम्मान में यक्ष-वसति नामक जैन मंदिर का निर्माण कराया था। साचोर और कोरता के प्रसिद्ध महावीर-मंदिरों को भी परंपरागत मान्यताओं के अनुसार यक्षदत्त-गणि से संबंधित बताया जाता है । अध्याय १४ में उल्लिखित प्रोसिया स्थित महावीर-मंदिर का निर्माण प्रतीहार वत्सराज (लगभग ७७२-६३) द्वारा 189 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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