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वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई०
[ भाग 4 जिस काल के राजनीतिक घटनाक्रम का यहाँ विवरण दिया गया है उसी काल दक्षिण में शैव नायनमार तथा वैष्णव आलवार के भक्तिपंथों की बढ़ती लोकप्रियता से जैन धर्म के उत्कर्ष को चुनौती का सामना करना पड़ा था। शैव नायनमार तथा वैष्णव आलवार-संत, कवि एवं संगीतज्ञ, तमिलनाडु एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में अधिक लोकप्रिय थे, किंतु कन्नड़ और तेलुगु प्रदेशों में इन दिनों जैन धर्म 'लुप्तप्राय बौद्ध धर्म के स्थान पर अधिक लोकप्रियता पा रहा था । अनेक राजवंशों के नरेश जैन धर्म का पालन करते थे और उनमें से अनेक ने जैन धर्म को राजधर्म भी बनाया था; अन्य राजा जैन धर्म को प्रश्रय देने के साथ-साथ इससे संबद्ध क्रिया-कलापों एवं संस्थानों के प्रति उदार थे। उत्पादकों, शिल्पियों एवं वणिक वर्ग के सामूहिक समाज (संघ) भी इसी प्रकार सभी आम्नायों के मंदिरों तथा धार्मिक संस्थानों के संरक्षक थे । राजकीय प्रश्रय के अभाव में यह संरक्षण बहुधा और भी अधिक सक्षम सिद्ध होता था तथा कई उदाहरणों में राजकीय प्रश्रय का स्थानापन्न होता था । जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र श्रवणबेलगोला ( तमिल जैनों में बप्पारम और अरुकुड़म् के नाम से विदित ) था । परंपरानुसार अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ( जिनका समय ईसवी सन् से भी पूर्व का है) से संबद्ध यह स्थान महान् कुंदकुंदाचार्य का स्थल और प्रथम शती ईसवी में उनकी कुंदकुंदान्वय परंपरा का केन्द्र रहा । तदुपरांत, अर्हदबली ने मूलसंघ को चार वर्गों में विभाजित किया, जिनके नाम हैं : नंदि, सेन, देव, एवं सिंह । प्रत्येक संघ पुनः गच्छों एवं गणों में विभाजित था । इसी समय वज्रनंदी द्वारा द्रविड़ संघ की स्थापना की गयी जिसकी शाखाएँ समस्त तमिलनाडु में थीं और यह संघ श्रवणबेलगोला के मूलसंघ से भी संबद्ध था ।
जैन गुरुत्रों के मुख्य अधिष्ठान पहाड़ी उपत्यकाओं में हुआ करते थे, जिनमें प्रायः प्राकृतिक गुफाएं या टें होती थीं । जन साधारण की पहुँच से दूर इन स्थानों में कहीं कोई भरना या पहाड़ी भील मिल जाती थी ( अध्याय 8 ) । बारहवीं शती तक इस प्रकार के अनेक स्थल उपयोग में लाये जाते रहे । प्राकृतिक गुफाओं में प्रायः ईंटों से मंदिरों का निर्माण कर लिया जाता था जिनमें स्थापत्य कला के विशिष्ट अवयव होते थे । इन मंदिरों में प्लास्टर तथा रंगों का भी प्रयोग किया जाता था । इस श्रेणी के सातवीं-आठवीं शताब्दियों के निर्मित मंदिर निकट अतीत में ही प्रकाश में आये हैं । इनके भग्नावशेष उत्तर अर्काट जिले में तिरक्कोल और ग्रार्मामले में उपलब्ध हुए हैं जिनमें से ग्राममले के खण्डहरों में एक ओर शित्तन्नवासल से टक्कर लेते हुए तथा दूसरी ओर ऐलोरा की जैन चित्रकला से मेल खाते हुए चित्रों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। चिंगलपट जिले में बल्लिमलै, श्रवणबेलगोला की चंद्रगिरि पहाड़ी पर गुफा मंदिर एवं अन्य जिलों में इसी प्रकार के अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं । उत्तर-अर्काट में तिरुमलै का मंदिर सबसे बड़ा मंदिर है । इसकी रचना में चोल तथा राष्ट्रकूट स्थापत्य शैलियों के संरचनात्मक तत्त्व समाविष्ट हैं और साथ ही दोनों शैलियों की मूर्ति एवं चित्रकला के अंश भी विद्यमान हैं । बल्लिमले की प्राकृतिक कंदराओं में से एक के वितान पर उत्कीर्ण तीर्थंकर की मूर्ति युक्त मंदिर जिसे अब सुब्रह्मण्य मंदिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है तथा दूसरी कंदरा में ज्वालामालिनी यक्षी का मंदिर उक्त शैली के उल्लेखनीय उदाहरण
हैं ।
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