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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई.
[ भाग 4
वसन्तनन्दी का पुण्य उपहार है। चंदा ने लिखा है : 'यह मूर्ति जिसे आठवीं शती की मूर्ति माना जा सकता है, पूर्वी भारत में गुप्त-कला से उत्तर-मध्यकालीन या पाल-कला में संक्रमण को व्यक्त करती है । संक्रमण का एक बहुत ही स्पष्ट लक्षण है पादपीठ, जिसपर ऊपर की ओर विकासमान कमलपंखुड़ियों की एक पंक्ति का अंकन है। गुप्त-काल की आसीन मूर्तियों में कमल का कोई स्थान नहीं था, जबकि उत्तर-मध्यकालीन मूर्तियों पर युगल पंक्तियोंवाली कमल की पंखुड़ियों से अलंकरण होने लगा। ऊपरी पंक्ति की पंखुड़ियाँ ऊपर की ओर और निचली पंक्ति की नीचे की ओर मुड़ी होती हैं। इस मूर्ति की कुछ विशेषताएँ, जैसे तलुए और हथेलियाँ स्वाभाविकता की ओर एक नये झुकाव का संकेत करती हैं। शरीर-रचना की दृष्टि से अधिक युक्तिसंगत होते हुए भी उत्तर-मध्यकालीन मूर्तियों में गुप्तकालीन मूर्तियों के भाव-विस्तार और भाव-गांभीर्य की कमी है। ऋषभनाथ की इस मूर्ति के अंग स्थूल हैं । अंकन की यह स्थूलता कोहनियों के नुकीले कोणों से और भी बढ़ी हुई दिखती है ।
मंदिर के मध्यवर्ती कक्ष के चारों ओर बनी कोठरियों में जो मतियाँ हैं, उनमें पार्श्वनाथ, महावीर, अश्व-चिह्नांकित पादपीठ पर ध्यानस्थ संभवनाथ और वृक्ष की शाखा के नीचे बालकसहित एक जैन-दम्पति आदि की मतियाँ हैं।
उदयगिरि पहाड़ी पर निर्मित एक आधुनिक जैन मंदिर में चंदा ने पार्श्वनाथ की एक पदमासन मति देखी थी। पादपीठ के निचले भाग पर उत्कीर्ण अक्षरों के अवशेषों के आधार पर यह मति नौवीं शती की मानी जा सकती है। चंदा का कथन है कि 'इस मूर्ति में कुछ अद्वितीय विशेषताएँ हैं। यद्यपि कुशलता से गढ़ी गयी मुखाकृति से यह एक ध्यानस्थ योगी की मूर्ति प्रतीत होती है, किन्तु सुगठित और पुष्ट शरीर की दृष्टि से वह योगी की अपेक्षा मल्ल की मूर्ति अधिक जान पड़ती है। पादपीठ पर पद्मासनस्थ पार्श्वनाथ के शरीर से लिपटे हुए सप्तफण नाग की शरीर-रचना उच्चकोटि के आलंकारिक प्रभाव की सृष्टि करती है। जिस मूर्तिकार ने यह मूर्ति गढ़ी वह एक साहसी परिवर्तनकर्ता रहा होगा।
राजगिर से ही प्राप्त लगभग उसी समय की एक और आकर्षक मूर्ति मुनिसुव्रत की है जिसमें उनकी शासनदेवी बहुरूपिणी पादपीठ के नीचे एक शय्या पर लेटी हुई दिखायी गयी है (चित्र ९० क)। यह मूर्ति वैभार मंदिर में स्थापित है। ऐसी ही कुछ और भी मूर्तियों का परिचय हमें प्राप्त है। उनमें से एक कलकत्ता के श्री विजयसिंह नाहर के संग्रह में है, और दूसरी खण्डगिरि की गुफा
1 आयॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया. एनुअल रिपोर्ट, 1925-26. 1928. कलकत्ता. पृ 126 पर रामप्रसाद
चंदा का मत. / कुरैशी तथा घोष, पूर्वोक्त, पृ 18. 2 चंदा, पूर्वोक्त, पृ 126. 3 वही, पृ 127. 4 जर्नल प्रॉफ दि एशियाटिक सोसायटी. 1; 1959 ; 38-39 में देबला मित्रा. 5 इस मूर्ति का प्राप्तिस्थान अज्ञात है, किन्तु शैली की दृष्टि से यह बिहार कला-शैली की है । मैं अत्यन्त आभारी हूँश्री
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