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अध्याय 17
पश्चिम भारत
पश्चिम भारत में जैन कला की प्रारंभिक कृतियों के रूप में हमारा परिचय उन ६८ कांस्य प्रतिमाओं से है जो बड़ौदा नगर के बाह्य अंचल में अकोटा के भूमिगत भण्डार' से प्राप्त हुई हैं और जिनका रचनाकाल पाँचवीं शती के उत्तरार्ध से ग्यारहवीं शती तक निर्धारित किया जाता है। इन प्रतिमाओं में ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ और अजितनाथ सहित अनेक तीर्थंकरों, जीवंतस्वामी, सरस्वती, अच्छुप्ता तथा अंबिका (चित्र १०६) की अनेक मूर्तियों सहित अन्य यक्ष-यक्षियों की प्रतिमाएँ सम्मिलित हैं । तीर्थंकर-प्रतिमाएँ खड्गासन या पद्मासन-मुद्रा में निर्मित हैं तथा उनके पार्श्व में सर्वानुभूति यक्ष और अंबिका यक्षी की प्रतिमाएँ अंकित हैं। इनमें से कुछ प्रतिमाएँ त्रि-तीथिक (चित्र ११०), षट्-तीथिक और अष्ट-त्रि-तीथिक तथा एक चतुर्विंशति-पट्ट (चित्र १११) के रूप में परिष्कृत रचना शैली की प्रतीक हैं। इन ६८ प्रतिमाओं में से ३० अभिलेखांकित हैं, जिनमें से दो प्रतिमाओं पर निश्चित तिथियाँ- शक संवत् ६६१ तथा विक्रम संवत् १००६ भी अंकित हैं। पुरालेखीय एवं शैलीगत अध्ययन के आधार पर इन प्रतिमाओं में से कम से कम २८ का रचनाकाल सातवीं शती से पूर्व का निर्धारित किया जा सकता है। इस प्रकार ये प्रतिमाएँ छठी तथा सातवीं शताब्दियों की सजीव कलात्मक गतिविधियों का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। पाँचवीं शती के अंतिम चरण की ऋषभनाथ और जीवंतस्वामी2 की कांस्य प्रतिमाएँ तथा आठवीं शती की निर्धारण करने योग्य तथा चमरधारिणी की कांस्य प्रतिमा वस्तुतः पश्चिम भारतीय कला की श्रेष्ठतम कृतियाँ हैं।
___ वल (वलभी) से प्राप्त कांस्य निर्मित तीर्थकर-प्रतिमाओं', जिनका समय पुरालेखीय आधार पर छठी शती निर्धारित किया जा सकता है, की तुलना अकोटा से प्राप्त कुछ समनुरूप प्रतिमाओं से की जा सकती है। यद्यपि, वल (प्राचीन वलभी) से प्राप्त तीर्थकर-प्रतिमाएँ कलात्मक दृष्टि से
1 शाह (उमाकांत प्रेमानंद). अकोटा प्रोजेज. 1959. बम्बई. [प्रारंभिक कांस्य प्रतिमाओं के विषय में अध्याय
13 में विवेचन किया जा चुका है-संपादक] 2 वही, चित्र 8-9 [अध्याय 13 भी द्रष्टव्य--संपादक] 3 वही, चित्र 42-43. 4 वही, पृ 21, चित्र 21 [अध्याय 13 भी द्रष्टव्य--संपादक]
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