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प्रास्ताविक
[ भाग 1 जटिल होता गया । ये मूर्तियाँ विभिन्न तीर्थंकरों, सिद्धों, यहाँ तक कि आचार्यों, चौबीस तीर्थंकरों या पंचपरमेष्ठियों, या नव-देवताओं या नंदीश्वर की हैं या वे सर्वतोभद्रिका (चौमुखी मूर्तियाँ), एक ही फलक पर आदिनाथ, पार्श्वनाथ और दो अन्य तीर्थंकरों की हैं या उनमें श्रुत देवता (देवी सरस्वती या द्वादशांग प्रतीक) यक्ष और यक्षियों तथा कुल-देवताओं की मूर्तियाँ होती हैं जिन्हें जैन धर्म के नये अनुयायी अपने साथ इस धर्म में लाये । सिद्ध की मूर्ति धातु को काटकर बनायी जाती है और निराकार होती है। यदि सिद्ध की कोई मूर्ति बनायी भी जाती है तो उसपर कोई परिचय-चिह्न (लाँछन) नहीं होता। इनके अतिरिक्त धर्म-चक्र, अष्टमंगल, पायाग-पट के प्रतीकात्मक बिम्ब भी प्राप्त होते हैं। तीर्थंकरों की मूर्तियों में सबसे अधिक मूर्तियाँ ऋषभनाथ, चंद्रप्रभ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, शांतिनाथ और महावीर की होती हैं । परवर्ती शताब्दियों में इनके अलग-अलग चिन्ह निर्धारित किये गये । ऋषभनाथ का चिह्न बैल है तो नेमिनाथ का शंख और महावीर का सिंह, आदि। इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा हेतु किये जानेवाले अनुष्ठानों का सम्यक अध्ययन किया जाना चाहिए । वास्तव में, प्रतिष्ठा के समय मूर्ति की तीर्थंकर के पारंपरिक जीवन के अनुसार प्रतिष्ठापना के लिए 'स एव देवो जिन बिम्ब एषः' सूत्र का उच्चारण किया जाता है। इस प्रकार नयी प्रतिमा में तीर्थंकर के सभी महान् गुणों की प्रतिष्ठापना की जाती है। तदनंतर मूर्ति पूजा के योग्य हो जाती है । जब हम प्रतिष्ठा के अनुष्ठान को देखते हैं तो हमें यह अनुभव होता है कि (गर्भाधान से न भी हो तो) जन्म से लेकर केवलज्ञान (निर्वाण न सही) तक का तीर्थंकर का सारा जीवन हमारी आँखों के सामने मूर्त हो उठा है । उस समय हमें यह अनुभव होता है कि हम किसी पत्थर या धातु के टुकड़े की पूजा नहीं कर रहे वरन् सभी सर्वोच्च गुणों से युक्त तीर्थंकर की ही पूजा कर रहे हैं। तीर्थंकर के जीवन से आराधक को शिक्षा मिलती है। वह उसकी
आत्मा को ऊँचा उठाता है और आराधक स्वतः ही कर्मों से मुक्ति पाने के महान् आदर्शों का पालन करने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। साथ ही इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कुछ जैन मूर्तियाँ उत्कृष्ट कलाकृतियाँ हैं और अपने इस रूप में वे अतिरिक्त प्रेरणा-स्रोत हैं। तीर्थकर मूर्तियाँ, चाहे वे कायोत्सर्ग मुद्रा में हों या पद्मासन, ध्यानावस्था में पायी जाती हैं। वे वीतराग मुद्रा में होती है और उनकी भाव भङ्गिमा से शांत रस झलकता है । वस्तुतः भक्त जब श्रद्धा से अपना ध्यान इस प्रकार की मूर्ति पर केन्द्रित करता है तब वह कम से कम उन क्षणों में, उसकी मूर्तिमती वीतरागता और शांतरस की भावना में लीन हो जाता है जो कि दैनिक जीवन में दुर्लभ हैं।
केश-विन्यास की दृष्टि से बाहुबली की दो प्रकार की प्रतिमाएँ मिलती हैं : घ घराले बालों वाली उनकी मूर्ति अधिक पायी जाती है और वह श्रवणबेलगोला के गोम्मटेश्वर की मूर्ति से मिलती है। परवर्ती काल में उसकी शैली का अनुकरण किया गया और आज भी किया जा रहा है । गोम्मटेश्वर की मुद्रा भव्य है, मुख पर वीतरागता झलकती है और ध्यान की मुद्रा तो अनुकरणीय ही है। इस प्रकार की मूर्ति के लिए कोई भी व्यक्ति कलाकार की प्रशंसा किये बिना नहीं रहेगा। परम निष्ठावान भक्त के मन पर उन गुणों का बड़ा प्रभाव पड़ता है और वह उन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न कर सकता है।
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