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अध्याय 12
मध्य भारत
कुछ ही समय पूर्व तीर्थंकरों की तीन अभिलेखांकित प्रतिमाएँ प्रकाश में आयी हैं, जो मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में दुर्जनपुर नामक ग्राम में प्राप्त हुई हैं और इस समय विदिशा के स्थानीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं अभिलेख पद्मासनस्थ ध्यान-मुद्रा में तीर्थंकर-प्रतिमाओं के पादपीठ पर अंकित हैं। पादपीठों के दोनों ओर पंखधारी सिंह तथा मध्य में धर्म-चक्र उत्कीर्ण है, जिसकी परिधि का अंकन सामने की ओर है। इनमें से दो प्रतिमाओं (चित्र ५७ और ५८) की मुखाकृतियाँ विखण्डित हो चुकी हैं, किन्तु उनके पीछे भामण्डल तथा पार्श्व में दोनों ओर चमरधारी पुरुष खड़े हैं । इन भामण्डलों की बाहरी परिधि नखाकार किनारी से अलंकृत है तथा केन्द्र में एक सुंदर खिला हुआ बहुदल कमल है। तीसरी मूर्ति (चित्र ५६) का प्रभामण्डल अधिकांशतः नष्ट हो गया है और यह भी निश्चित नहीं है कि इस मूर्ति के पार्श्व में खड़े हुए सेवक अंकित थे या नहीं। किन्तु तीर्थंकर की मुसकानयुक्त मुखाकृति का एक अंश मात्र शेष है । नासिका, नेत्र और ललाट भाग खण्डित हो चुके हैं। शीर्ष के शेष भाग में कानों के लम्बे छिद्रयुक्त पिण्ड दिखाई देते हैं। इन तीनों प्रतिमाओं के वक्षस्थलों पर 'श्री-वत्स'-चिह्न स्पष्टत: परिलक्षित हैं। प्रत्येक तीर्थंकर का धड़ एक पूर्ण विकसित एवं सुपुष्ट वक्षस्थल युक्त है, जो गुप्तकालीन मूर्तिकला की अपनी विशेषता है । धड़ के दोनों ओर निकली हुई कोहनी और भजाओं की स्थिति विशेष प्रकार की है, जो समूची प्रतिमा को एक त्रिकोणाकार रूप प्रदान करती है, जिसमें सिर त्रिकोण का शीर्षभाग और दोनों भुजाएँ त्रिकोण की दो भुजाओं का रूप ग्रहण करती प्रतीत होती हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में और कम से कम जैन ध्यानावस्थित प्रतिमाओं में पद्मासन-मुद्रा का अंकन योगासन की एक आदर्श मुद्रा के रूप में मान्य रहा होगा।
ये मूर्तियाँ मात्र जैन धर्म के इतिहास तथा मूर्तिकला की दृष्टि से ही नहीं अपितु गुप्तकालीन कला के इतिहास की दृष्टि से भी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। चित्र ५७ क की मूर्ति का अभिलेख (चित्र ५७ ख) अन्य दो प्रतिमाओं के अभिलेखों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है । इस अभिलेख के अनुसार महाराजाधिराज रामगुप्त ने इन प्रतिमाओं का निर्माण तथा प्रतिष्ठा गोलक्यान्त्या के सुपुत्र चेल
1 गइ (जी एस). थ्री इंस्क्रिप्शन्स ऑफ रामगुप्त. जर्नल प्रॉफ दि मोरियण्टल इंस्टीट्यूट, बड़ौदा. 18; 1969:
247-51 तथा एपिग्राफिया इण्डिका. 38; 1970; 46-49.
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