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अध्याय 11 ]
पूर्व भारत
ठीक-ठीक अनुपात में बनायी गयी हैं । उनका चेहरा पुष्ट एवं अण्डाकार है । कर्ण - पिण्ड लम्बे और ग्रीवा का रेखन नियमित है । कंधे से कटि तक तथा उसके नीचे के भाग की संधि कुशलतापूर्वक अंकित की गयी है । प्रत्येक भाग स्पष्ट दिखाई पड़ता है किन्तु बड़ी कुशलतापूर्वक एक दूसरे में मिलाया गया है । इन विशेषताओं के कारण ये प्रतिमाएँ चन्द्रप्रभ की प्रतिमाओं से श्रेष्ठ जान पड़ती हैं, यद्यपि चन्द्रप्रभ को प्रतिमाएँ अधिक अलंकृत हैं । तथापि, ऋषभदेव की हथेलियाँ अनुपात का ध्यान न रखकर बड़ी बनायी गयी हैं और पैर के अँगूठे बाहर निकले हुए हैं। बालों को दोनों ओर लटकते हुए दिखाया गया है तथा सिर के बीच में बालों की माँग निकाली गयी है। बालों के गुच्छों को लहरों की भाँति कंधे पर फैला हुआ दिखाया गया है ।
चन्द्रप्रभ की प्रतिमाओं में से एक ( चित्र ५४ क ) के मूर्तन में कुछ बातें और विस्तार से प्रायी । तीर्थंकर को एक ऐसे द्वि-स्तरीय प्रायताकार पादपीठ पर ध्यान - मुद्रा में अंकित किया गया है जो दो अलंकृत स्तंभों के मध्य में देवकुलिका जैसा प्रतीत होता है । स्तंभों के शीर्ष पर असंगत आकार के मकर- मुख हैं, जिनकी जिह्वाएं कुण्डली के रूप में बाहर निकली हुई हैं । तीर्थंकर - शीर्ष के पीछे एक अर्ध गोलाकार शिरश्चक्र है, जिसकी परिधि पर गोल कंगूरे, कमल-पंखुड़ियों का एक भामण्डल तथा सबसे ऊपर अर्धचन्द्र है । इस मूर्ति में उष्णीष, लम्बे कर्ण-पिण्ड और कंधों पर लटकते हुए बालों का अंकन, जैसा कि ऋषभदेव की प्रतिमाओं में होता है, एक आश्चर्य की बात है । चन्द्रप्रभ का मुख गोल है, धड़ छोटा है और कंधे तथा भुजाएँ कुछ बाहर निकली हुई हैं। कटि के नीचे का भाग अर्थात् टाँगों और हाथों के घुमाव (पद्मासन स्थिति) का चित्रण सूक्ष्मता से नहीं हुआ है । चंद्रप्रभ की दूसरी प्रतिमा ( चित्र ५४ ख ) पहली से कुछ छोटी है, किन्तु उसी के समान है। न पहचानी जा सकी मूर्तियों में से एक ( चित्र ५५ ख ) उसके द्वि-स्तरीय पादपीठ के विवरणों तथा शरीर के निचले भागों के अंकन की दृष्टि से इसी वर्ग की प्रतीत होती है ।
समग्र दृष्टि से इन कांस्य मूर्तियों में शैलीगत अंतर है, विशेष रूप से मुखाकृति तथा शरीर के अंकन में । चंद्रप्रभ की मूर्तियाँ ऋषभदेव की मूर्तियों से परवर्ती प्रतीत होती हैं । 1
मृण्मूर्तियां
उक्त मूर्तियों की तुलना में, मृण्मूर्तियों में कला कौशल की कमी है और वे उस पुरातनता को दोहराती प्रतीत होती हैं, जो उन्हें विरासत में मिली थी। इस प्रकार की जो मूर्तियाँ वैशाली 2 में प्राप्त
1 तुलनीय शाह, पूर्वोक्त, 1955, पृ 13. श्री शाह ने कुछ चौसा कांस्य मूर्तियों पर अपना मत व्यक्त किया है ।
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कृष्णदेव तथा मिश्र, पूर्वोक्त, पू 51, चित्र 12 ग 7. / सिन्हा तथा राय, पूर्वोक्त, पु 162-63, चित्र 52, चित्र 1-9 / सिन्हा और राय इन मृण्मूर्तियों से संबंधित वैशाली की चौथी अवधि को कालक्रमानुसार लगभग 200 - 600 ई० मानते हैं ।
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