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अध्याय 13 ]
पश्चिम भारत चित्र ६५ ख अकोटा-जीवंतस्वामी की कांस्य प्रतिमा को प्रदर्शित करता है, जिसका पादपीठ नष्ट हो गया और जो आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त है। फिर भी, मुकुट सहित शीर्ष पूर्णतः सुरक्षित है । यह ऊंचा मुकुट मथुरा के कुषाणयुगीन विष्णु (पहले इंद्र समझा गया) के बेलनाकार मुकुट (ईरानी टोपी) के समान निर्मित है।' यह चौकोर है, जिसमें सामने की ओर चैत्य-वातायन के समान अलंकरण तथा पार्श्व, शीर्ष और पृष्ठभाग में कमल-प्रतीक अंकित हैं। बालों की कुण्डलित लटे कंधों पर तीन पंक्तियों में गिरती हैं और सुंदर शैली में सँवारे हुए केश पट्टे के नीचे से दिखाई देते हैं, जो संभवतः मुकुट का ही भाग है। मूर्ति का निचला अधर ताम्र-जटित है, जो अधरों के अरुणाभ होने का संकेत देता है; रजत-मण्डित अर्धनिमीलित नयन ध्यान की गहनता का आभास देते हैं। उनके विशाल मस्तक पर वृत्ताकार तिलक का चिह्न है। आध्यात्मिक ध्यान एवं आनंद तथा पूर्ण यौवन की प्राभा से प्रदीप्त मुखमण्डलयुक्त महावीर की यह प्रतिमा कदाचित् अबतक प्राप्त मूर्तियों में श्रेष्ठतम है। मेखला (करधनी) से कसी हुई धोती घुटनों से नीचे तक लटकी हुई है। मेखला के मध्य में बनी कुण्डलपाश से बाँधा हुआ पर्यसत्क पार्श्व में नीचे की ओर लटक रहा है। इस प्रकार की कुण्डलपाश देवगढ़ की अनंतशायी विष्ण-प्रतिमा पर भी उत्कीर्ण है । धोती के मध्य भाग में एक अलंकृत लघुवस्त्र (पर्यसत्क) बँधा है, जिसके एक छोर की चुन्नटें नीचे की ओर लटक रहीं हैं तथा दूसरा छोर जो बायीं जाँघ को ढंकता है, विलक्षण अर्धवृत्ताकार चुन्नटों में वल्ली-जैसा प्रतीत होता है। इस प्रकार की धोती निःसंदेह पश्चिम भारतीय मूर्तिकला की प्रारंभिक शैली की विशेषता है। तीन धारियों युक्त ग्रीवा, चौड़े स्कंध, लंबी भुजाएं, साधारण रूप में उभरा वक्ष और क्षीण कटि में गुप्त-कला की सभी विशेषताएँ हैं। ऊपरी भुजा के मध्य भाग की अपेक्षा कंधे के निकट धारण किया हुआ भुजबंध, जिसमें मणिमाल तथा गवाक्ष कला-प्रतीकों का होना भी इसके प्रारंभिक काल का द्योतक है। इसमें उत्कीर्ण कण्ठमाल की रूपरेखा भी मथुरा की प्रारंभिक कुषाण-मूर्तिकला की विशेषता लिये हुए है। चौड़ा स्वर्णहार गंधार की बुद्ध-प्रतिमा के गले में स्थित आभूषण के सदश है। अतएव, यह प्रतिमा लगभग ५००-२५ के बाद की नहीं हो सकती; संभवतः, इससे कुछ पूर्व की हो सकती है।
अकोटा से प्राप्त जीवंतस्वामी की दूसरी प्रतिमा (चित्र ६८-क) में उन्हें एक ऊंचे अभिलेखांकित पादपीठ पर खड्गासन ध्यान-मुद्रा में दिखाया गया है। पादपीठ का अभिलेख लगभग ५५० ई० की लिपि में उत्कीर्ण है। अभिलेख में ऐसा उल्लेख है कि जीवंतस्वामी की यह प्रतिमा, चंद्रकुल की जैन महिला नागीश्वरी का धर्मोपहार (देवधर्म) था। कायोत्सर्ग-मुद्रा में यह प्रतिमा मुकुट, कुण्डल, भुजबंध, कंगन और धोती से युक्त है। धोती के दो छोर मध्य में बँधे हुए लहरा रहे हैं। भुजबंध मणिमय स्वर्णमाल-युक्त है, जो अत्यधिक घिसा हुआ है। दायें कान में मोती का कूण्डल लटक रहा है और बायें में मकर-कुण्डल प्रतीत होता है। त्रिकूट (त्रिकोणात्मक) मुकुट मध्य
1 वोगल (जे फ). ला स्कल्पचर डी मथुरा. 1930. पेरिस और ब्रुसेल्स . चित्र 39 क और ख, प 46./
शाह, पूर्वोक्त, 1959, चित्र 9 क, 9 ख. पृ 26-27.
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