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अध्याय 13 ]
पश्चिम भारत
की थैली है। प्रांतरिक रूपरेखा में मणिकायुक्त, कुछ-कुछ अण्डाकार तथा प्रदीप्त शोभायुक्त प्रभामण्डल उत्तर भारतीय मूर्तिकला में प्रथम बार देखने को मिलता है। प्रभामण्डल की ऐसी रूपरेखा का प्रचलन इस युग के अंतिम चरण से प्रारंभ हुआ, जिसे अजंता में भी देखा जा सकता है। यह रूपरेखा मण्डोर, अवंती, कन्नौज और भड़ौंच के गुर्जर-प्रतीहार शासनकाल में चार-पाँच शताब्दियों तक प्रचलित रही। इन आभूषणों में गुप्त-कालीन विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं, विशेषतया विशाल स्कंधों की संरचना ध्यान देने योग्य है। विशाल नेत्र एवं चौड़े ललाटयुक्त मुखमण्डल मूल प्रतिमा के अनुरूप है और प्रारंभिक पश्चिम भारतीय शैली में है।
सेविका यक्षी अंबिका एकावली सहित एक अतिरिक्त उरःसूत्र धारण किये हुए है, जो सुनिमित उन्नत स्तनों के मध्यभाग से गुजरता हुआ नीचे कुण्डली के रूप में लटकता रहता है। उसकी गोद में शिशु भी एकावली पहने हुए है। अंबिका के बाल उसके सिर के उपर जूड़े के रूप में सुसज्जित हैं और वह अपने दायें हाथ में पाम्र-गुच्छ लिये हुए है। उसकी आकृति के प्रतिरूपण में इस शैली की विशिष्टता सम्मिलित है।
यक्ष और यक्षी दोनों की प्रतिमाएँ जैन कला की अबतक ज्ञात शैली की प्राचीनतम उपलब्धियाँ हैं। अंबिका का प्राचीनतम साहित्यिक संदर्भ भी अम्बा-कुश्माण्डिनी के रूप में जिनभद्र-गणि क्षमाश्रमण की समकालीन कृति की टीका अर्थात् 'विशेषावश्यक महाभाष्य' की टीका में मिलता है। प्रसंगवश यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि लगभग छठी शताब्दी से नौवीं शताब्दी तक सर्वानुभूति (अथवा सर्वाह्न) तथा अंबिका यक्ष-युगल ही सभी चौबीस तीर्थंकरों के साथ एकमात्र सेवक यक्षयुगल के रूप में विद्यमान रहा था।
अकोटा-समूह में तीर्थंकर की एक और कायोत्सर्ग प्रतिमा है, जिसके पृष्ठ में अण्डाकार अभिलेखांकित प्रभावली है। इसके अभिलेख से पता चलता है कि यह मूर्ति पूर्वोक्त जिनभद्र वाचनाचार्य ने दान की थी।
अकोटा-समूह में ही अंबिका की एक सुंदर कांस्य प्रतिमा के पृष्ठभाग में अभिलेख है, जिससे ज्ञात होता है कि यह मूर्ति छठी शताब्दी के उत्तरार्ध की है। इसमें (चित्र १०६) बड़ी-बड़ी बिसूरती आँखों तथा लपलपाती जीभवाली अंबिका लेटे हुए सिह पर ललित मुद्रा में बैठी है। संपूर्ण प्रतिमा और पृष्ठ का प्रभामण्डल एक पीठ से संलग्न है, जो भिन्न प्रकार की तीन पट्टियों तथा पादस्थान में कमल पुष्पों द्वारा सुसज्जित है। प्रभामण्डल कमल-पंखुड़ियों से या अग्निशिखा की उद्भासित किरणों से शोभायमान निर्मित किया गया है, जिसके शीर्ष पर पद्मासन ध्यान-मुद्रा में
1 विशेषावश्यक-भाष्य जिसपर लेखक का स्वरचित अपूर्ण भाष्य है, जिसे कोट्यार्य ने पूर्ण किया, डी डी
मालवणिया, अहमदाबाद, द्वारा संपादित भाग-3, पृ 711, गाथा-3589 की टीका. कोट्यार्य, जिसने जिनभद्र की अधूरी टीका को पूरा किया, अवश्य ही जिनभद्रगणी का समसामयिक कनिष्ठ व्यक्ति रहा होगा.
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