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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई०
[ भाग 3 विशेष शिरोभूषण के समान है जिससे इस प्रकार के मुकुटों का विकास हा है। इन दोनों यक्षों के शरीर-विन्यास का अंकन, यक्षों और गंधर्वो के गले का आभूषण-एकावली, गंधर्वो का सजीव चित्रण, तथा सौंडनी, एहोले आदि से उनकी समानता के कारण इस प्रतिमा का रचनाकाल लगभग चौथी शताब्दी का उत्तरार्ध अथवा पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्ध प्रतीत होता है जो गुप्त-शासन का प्रारंभिक काल था। मुकुट पर इसी प्रकार के कला-प्रतीक का अंकन उदयगिरि की एक गुफा के विख्यात वराह-फलक पर अंकित नाग तथा दो या तीन खड़ी हुई छोटी प्राकृतियों के शिरोभूषणों में पाया गया है। तीर्थकरों के शीर्ष तथा शरीर के अंकन की मथुरा की लगभग चौथी शताब्दी की प्रतिमाओं से समानता भी तिथि की पुष्टि करती है। पादपीठ के मध्य में धर्म-चक्र और उसके दोनों ओर दो छोटे-छोटे सिंह अंकित किये गये हैं। इसी स्थान से प्राप्त, आगे वर्णित ऋषभनाथ की खड़गासन प्रतिमा के पादपीठ की सादृश्यता के आधार पर कहा जा सकता है कि तीर्थंकर की यह पद्मासन मूति महावीर की है जिस पर उनका परिचय-चिह्न सिंह अंकित है।'
सीरा पहाड़ी से प्राप्त ऋषभनाथ की खड्गासन प्रतिमा (चित्र ६३) के पादपीठ पर धर्मचक्र तथा उसके दोनों ओर दो भक्त अंकित हैं। पुनीत चक्र की परिधि को सामने की ओर से उसी प्रकार अंकित किया गया है, जैसे मथरा की कुषाणकालीन प्रतिमाओं के पादपीठ पर । साथ ही, इस प्रतिमा के पादपीठ के दोनों सिरों पर विशिष्ट भारतीय वृषभ अंकित है, जो ऋषभनाथ का परिचयचिह्न है। परवर्ती जैन मूर्तियों में सिंह को पादपीठ के दोनों पाश्वर्यों में अंकित किया गया है, जो सिंहासन का सूचक है, जबकि बौद्ध मूर्तियों के समान धर्म-चक्र के पार्श्व में दोनों ओर दो हरिणों का अंकन है। किन्तु इस प्रतिमा में वृषभ-चिह्न तो इसी प्रकार दर्शाया गया है, किन्तु धर्म-चक्र के पार्श्व में हरिण अंकित नहीं हैं। इससे स्पष्ट है कि यह प्रतिमा उस प्रारंभिक काल की है, जब प्रतिमाओं में परिचय-चिह्नों के अंकन का प्रारंभ ही हुआ था और जब तीर्थंकरों के परिचय हेतु चिह्नों की परिपाटी पूर्णरूपेण निर्धारित नहीं हो पायी थी । इस सादृश्यता के आधार पर चित्र ६२ में दर्शायी गयी तीर्थंकरप्रतिमा को महावीर की प्रतिमा माना जा सकता है।
इन दोनों मूर्तियों की शैली शास्त्रीय गुप्त-शैली के विशिष्ट कुषाण-प्रकारों से पलायन की सूचक है। किन्तु महावीर की प्रतिमा एक सुंदर कलाकृति है, जिसमें विशेष रूप से मुखाकृति का अंकन अत्यंत उत्कृष्टता के साथ किया गया है । इसी स्थान से उपलब्ध और इसी काल की, संभवतः इससे
1 मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त कुषाणकालीन जैन प्रतिमाओं में तीर्थंकरों के लांछन (परिचय-चिह्न) नहीं पाये गये
हैं। राजगिर की गुप्तकालीन जैन प्रतिमाओं में लांछन तो पाये गये हैं, किन्तु इनकी स्थिति पाँचवीं शताब्दी में भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हो पायी थी। उदाहरण के लिए, राजगिर की वैभार पहाड़ी पर स्थित नेमिनाथ की प्रतिमा के विषय में द्रष्टव्यः प्रायॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया. एनुअल रिपोर्ट, 1925-26. संपा. रामप्रसाद चंदा, 1928. कलकत्ता. Y 125 तथा परवर्ती. / शाह, पूर्वोक्त, पृ 14, चित्र 18 [और द्रष्टव्यः इस ग्रंथ में चित्र 53 -- संपादक] इस प्रतिमा के पादपीठ के केन्द्र में धर्म-चक्र के दोनों ओर दो शंख अंकित हैं। शंख नेमिनाथ का परिचय-चिह्न है।
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