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अध्याय 6]
मथुरा इस स्तूप की ऊंचाई और बाह्य रूप के संबंध में हमें सरदलों, पायाग-पटों और तोरणशीर्षों इत्यादि के शिल्पांकनों को देखना चाहिए। शिल्पांकनों से, तथा प्रवेशद्वारों और वेदिकाओं के विच्छिन्न प्रस्तर-खण्डों से भी यह प्रतीत होता है कि इस स्थल पर या तो एक से अधिक महत्त्वपूर्ण स्तुप थे अथवा जो एक मात्र स्तूप था उसका समय-समय पर जीर्णोद्धार तथा अलंकरण किया जाता रहा।
कालक्रमानुसार, स्तूप की सर्वप्रथम अनुकृति एक स्तूप के प्रवेशद्वार के निचले सरदल के (चित्र २ क) पुरोभाग में मिलती है। यह सरदल अाजकल राज्य संग्रहालय, लखनऊ में है (रा० सं० ल० जे-५३५) । इसपर उत्कीर्ण मूर्तियों एवं प्राकृतियों की शैली को ध्यान में रखते हुए, इस सरदल को ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी का परवर्ती नहीं माना जा सकता। उत्तरोत्तर घटती हुई तलवेदीयुक्त ढोलाकार शिखरवाला यह स्तूप कुछ-कुछ घंटे की-सी प्राकृति का है । ढोलाकार शिखर की तलवेदियों के चारों ओर त्रि-दण्डीय वेदिकाएँ हैं। अर्धवृत्ताकार शिखर पर एक वर्गाकार त्रि-दण्डीय वेदिका है जिसके केन्द्र से एक छत्र स्पष्ट रूप से ऊपर की ओर उठा हुआ है। चौथी वेदिका, जो प्रदक्षिणा-पथ को चारों ओर से घेरे हुए है, भूमितल पर बनायी गयी है। संभव है कि यह स्तूप तथाकथित देव-निर्मित स्तूप ही हो, जिसका प्रारंभ में कोई प्रस्तर-द्वार नहीं था।
स्तूप की एक अन्य अनुकृति इसी अवधि के एक दूसरे खण्डित सरदल (रा० सं० ल०, जे५३५) पर है। यह सरदल भी अब लखनऊ संग्रहालय के भण्डार-गृह में है। इस सरदल को चारों ओर से जानबूझकर काट दिया गया था, ताकि इसे वेदिका के कोण-स्तंभ में परिणत किया जा सके। परिणामस्वरूप इसके उत्कीर्ण भाग कई स्थानों पर नष्ट हो गये हैं। शिल्पांकित भाग में एक स्तूप अंकित है, जिसका सबसे निचला भाग तथा अर्धवृत्ताकार शिखर की वेदिका के ऊपर का छत्र लापता है । क्योंकि निचला भाग उपलब्ध नहीं है, अतः यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि इसके ढोलाकार शिखर के साथ वेदिकायुक्त दो तलवेदियाँ थीं या नहीं । यदि नहीं थीं, तो निचली वेदिका (इसके नीचे का भाग काट दिया गया है) ने भू-तल वेदिका का कार्य किया होगा। स्तूप के बायें भाग में दो सवारों सहित एक हाथी, एक अश्वारोही और दो बैलों के सिर हैं। ये बैल संभवतया एक गाड़ी खींच रहे थे, जो अब लापता है। उत्कीर्ण भाग में ढाई कोटर हैं। एक संलग्न पार्श्व में सूचियों की चलों के लिए कोटर भी बने हुए हैं।
स्तूप-स्थापत्य के विकसित स्वरूप का ज्ञान हमें उस सुरक्षित शिल्पांकित शिला-पट्ट (पायागपट, पु० सं० म०, क्यू-२; चित्र १) से मिलता है, जिसका कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है।
1 हरिषेण (932 ई०). बृहत्-कथा-कोष, संपा : ए एन उपाध्ये. 1943. बम्बई. पृ26. इसमें मथुरा के पाँच
प्राचीन स्तूपों की स्थापना का विवरण दिया हुआ है . 2 जर्नल ऑफ द यू पी हिस्टॉरिकल सोसाइटी. 23; 1950; 69-70.
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