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बास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई. पू. से 300 ई०
[ भाग 2
प्रायाग-पट
इस तोरण-शीर्ष से ज्ञात होता है कि प्रायाग-पटों का उपयोग किस ढंग से किया जाता था। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इसमें स्तूप के निकट चार आयताकार ठोस पीठिकाएं हैं। इनमें से प्रत्येक पीठिका के ऊपर एक उत्कीर्ण शिलापट्ट स्थापित किया हुआ दिखाई देता है । इन शिलापट्टों पर उत्कीर्ण प्राकृतियाँ, निस्संदेह, शिलापट्टों के लघु आकार के कारण लघु रूप में ही अंकित की गयी हैं, फिर भी रूपांकनों की सामान्य व्यवस्था और विन्यास इस बात की ओर संकेत करते हैं कि ये शिलापट्ट निस्संदेह पायाग-पट हैं। स्तूप की निकटतम पीठिका के ऊपर स्थापित शिलापट्ट के मध्यभाग में एक कला-पिण्ड है जो चार त्रि-रत्नों (अथवा नन्दिपदों) के आधार-वृत्त का काम दे रहा है, इन प्रतीकों के ऊपरी अवयव! इस केन्द्रीय वृत्त के चारों ओर निर्मित हैं । त्रिरत्नों (या नन्दिपदों) का ऐसा विन्यास आयाग-पटों के अनेक रूपों में पाया जाता है (उदाहरणार्थ, रा० सं० ल०, जे-२४६, जे-२५० और जे-२५३ तथा पु० सं० म० ४८. ३४२४) । इस तोरण-शीर्ष पर चार आयाग-पटों के चित्रण से प्रतीत होता है कि पीठिकाएं, जिनके ऊपर पायाग-पट स्थापित किये जाते थे, मुख्य स्तुप के निकट, संभवतया उसकी चार आधारभूत भुजाओं के सम्मुख, स्थापित की की जाती थीं। तथापि, यह उल्लेखनीय है कि प्रथम शताब्दी ईसवी के पूर्वाद्ध के आयाग-पटों की संख्या चार से अधिक है। इसके अतिरिक्त वासु (पृष्ठ ५४) और नन्दिघोष द्वारा स्थापित प्रस्तर-पट्टों पर दिये गये समर्पणात्मक अभिलेखों से प्रतीत होता है कि ये पायाग-पट अर्हतायन और भण्डीर वृक्ष या कुंज में भी अधिष्ठापित किये जाते थे। भण्डीर शब्द न्यग्रोध (वट) वृक्ष, जो ऋषभनाथ का कैवल्य-वक्ष था और शिरीष वक्ष जो सुपार्श्वनाथ का कैवल्य-वक्ष था दोनों की ओर संकेत करता है। पहला वृक्ष मथुरा का भण्डीर-वट प्राचीनकाल में पवित्र माना जाता था। जैसा कि पहले बताया जा चुका है (पृष्ठ ५३), महावीर मथुरा में अपने प्रवास के मध्य संभवतः भण्डीर-उद्यान में ठहरे थे जो सुदर्शन यक्ष का निवास स्थान था। स्पष्टतः भण्डीर-वृक्ष या उद्यान महावीर के साथ संबद्ध होने के कारण जैनों के लिए परम पावन था।
1 चौबिया-पाड़ा, मथुरा के एक प्रतिरूप पर (पु०सं० म०, 48.3426), ये अवयव मकरों के एक जोड़े के बने हुए
हैं जिन्होंने अपनी सूढ़ से एक कमल थामकर ऊपर की ओर उठाया हुअा है. 2 ल्यूडर्स, पूर्वोक्त, क्रमांक 95. 3 बूलर ने इस शब्द को 'भंदिरे' के रूप में पड़ा और यह कहा कि इसे 'मंदिरे अर्थात् मंदिर में पढ़ने की प्रवृत्ति होती
है. परंतु पहला व्यंजन सादा दिखाई देता है. एपिग्राफ़िया इण्डिका. 1; 1892; 397, टिप्पणी क्र० 35. जैसाकि ल्यूडर्स ने संकेत किया है (इण्डियन एण्टिक्वेरी. 333; 1904; 151), सही वाचन भंडिरे है. इस संबध में ल्यूडर्स ने यह कहा था कि "क्या इसका अर्थ' 'भण्डीर वृक्ष पर' है, या संभवतया यह संस्कृत शब्द 'भण्डारे अर्थात् भण्डार में | पर' है, मैं इस समय निश्चय करने का साहस नहीं कर पा रहा हूँ." विवागसूय (पृष्ठ 53) में महावीर की मथुरा-यात्रा का विवरण पढ़ने पर व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि भण्डीर शब्द जो नंदिघोष के उस शिला-लेख में प्रयुक्त हुआ है जिसमें आयाग-पटों के समर्पण का उल्लेख है, भण्डीर उद्यान या भण्डीर-वृक्ष के लिए है.
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