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अध्याय 9
दक्षिण भारत
प्रस्तावना
दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रसार ईसा-पूर्व चौथी शती के अंतिम चरण के लगभग श्रुतकेवलो भद्रबाहु के साथ जैन समाज के आव्रजन से हुआ। दिगंबर परंपरा के अनुसार भद्रबाहु के साथ चन्द्रगुप्त (६०० ई० तथा परवर्ती श्रवणबेलगोल अभिलेखों में उल्लिखित प्रभाचंद्र) नामक एक राजा था । सामान्य धारणा यह है कि वह सुविख्यात मौर्य नरेश चन्द्रगुप्त ही थे। इसी परंपरा से ज्ञात होता है कि आव्रजन के फलस्वरूप जैन लोग कर्नाटक में श्रवणबेलगोला और वहाँ से तमिलनाडु पहँचे थे । ऐसी मान्यता है कि तमिल क्षेत्रों में परवर्ती गतिविधि का नेतृत्व विशाखाचार्य ने किया था। इससे अनुमान किया जा सकता है कि प्रव्रजन का क्षेत्र उत्तर भारत (मालवा क्षेत्र) से कर्नाटक और वहाँ से तमिलनाडु की ओर रहा होगा।
इस परिपुष्ट एवं संपन्न परंपरा का उल्लेख हमें ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दियों तथा परवर्ती ग्रंथों में मिलता है, जबकि इस गतिविधि का प्रथम अभिलेखांकित साक्ष्य श्रवणबेलगोल के शिलालेख से प्राप्त होता है जो ६०० ई० से पूर्व का नहीं है । इस प्रकार परंपरागत आख्यानों और उपलब्ध जैन पुरावशेषों की परस्पर संगति एक समस्या बन गयी है; क्योंकि, ६०० ईसवी से पहले के वास्तुस्मारक तथा पुरालेखीय साक्ष्य, विशेषतः दक्षिणापथ में, प्रायः सर्वथा अनुपलब्ध हैं।
जैन धर्म के अनुयायी और ईसा-पूर्व द्वितीय-प्रथम शताब्दियों के प्रथम सातवाहन नरेश सिमुक के प्रसंग तथा गुणाढ्य की बृहत्कथा आदि कुछ प्राचीन प्राकृत ग्रंथों के अतिरिक्त ऐसा कोई स्पष्ट और इतिहास-सम्मत प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जो प्राचीनकाल ६०० ई० तक दक्षिणापथ में जैन धर्म का अस्तित्व सिद्ध कर सके। शैलोत्कीर्ण और निर्मित शैलियों के जैन वास्तु-स्मारकों के अवशेष बादामी के चालुक्यों (सातवीं-नौवीं शताब्दियों) तथा मलखेड के राष्ट्र कूटों (आठवीं-नौवीं शताब्दियों) के समय से मिलते हैं और ऐतिहासिक अध्ययनों में उनके उल्लेख का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है।
आन्ध्र प्रदेश की स्थिति इससे अधिक भिन्न नहीं है। दक्षिण उड़ीसा में, जहाँ प्राचीनतम जैन शैलोत्कीर्ण गुफाएँ (खण्डगिरि-उदयगिरि पहाड़ियों पर) विद्यमान हैं, दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दियों से
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