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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई०
[ भाग 3
शीर्ष
वियुक्त शीर्षों के सूक्ष्म अध्ययन से निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं :
१. कुछ अपवादों को छोड़कर उनके केश नियोजित रूप में धुंघराले हैं (चित्र ५०) । अपवादों में से एक पर लहरियेवाले केश हैं (पु० सं० म० : ३३.२३४८, चित्र ४६) और दूसरे के बाल कंघी से पीछे की ओर सँवारे हुए चित्रित किये गये हैं (पु० सं० म० : १२.२६८, चित्र ४७ ख)।
२. एक अपवाद को छोड़कर (पु० सं० म० : १२.२६८, चित्र ४७ ख) शेष में उर्ण-चिह्न नहीं हैं।
३. एक मूर्ति के (पु० सं० म० : बी-४४, चित्र ४८) ललाट पर एक वर्तुलाकार चिह्न दृष्टिगोचर होता है, जो एक सँकरी पट्टी द्वारा लटका हुआ कुण्डल-जैसा प्रतीत होता है। यदि यही चिह्न वाराणसी से प्राप्त अजितनाथ की लगभग समकालीन मूर्ति (रा० सं० ल० : ४६.१६६, रेखाचित्र ६) पर नहीं पाया गया होता तो उसके संबंध में शीघ्र ही यह मान लिया गया होता कि किसी ने बाद में यह शरारत इस अभिप्राय से की होगी कि तीर्थंकर की मूर्ति पर तिलक-मणि दिखाया जा सके। अतएव इस चिह्न पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
रेखाचित्र 6. वाराणसी : अजितनाथ की मूर्ति का सिर (रा० सं० ल०, 49.199)
४. सामान्यतया, भौहें नाक के ऊपर एक बिन्दु पर मिलती हैं, किन्तु इस विशेषता को, जो कुछ ही मूर्तियों में पायी जाती है (रा० सं० ल० : जे-५६, केवल सिर (पु० सं० म० : बी-५३, १५.५६५, २६.१६४१ आदि), उस युग का लक्षण नहीं माना जा सकता।
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