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अध्याय 9 ]
दक्षिण भारत पूर्व के जैन पुरावशेष वस्तुतः बहुत कम संख्या में प्राप्त हुए हैं। दूसरी ओर ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिणापथ के पश्चिमी और पूर्वी अंचलों में, बौद्धों की वास्तुशिल्पीय गतिविधि निरंतर बनी रही। पश्चिमी अंचल में यह गतिविधि ईसा-पूर्व दूसरी शती से नौवीं शती ई० तक शैलोत्कीर्ण शैली में, तथा पूर्वी अंचल में ईसा-पूर्व दूसरी शती से लगभग पाँचवीं शती ई० तक निर्मित शैली में विकसित
दक्षिणापथ से तमिलनाड़ की स्थिति भिन्न थी। वहाँ की पर्वत श्रेणियों में अनेक मनोहारी प्राकृतिक गुफाएं हैं जिन्हें जैन मुनियों के आवास के योग्य बनाने के लिए उनमें प्रस्तर-शय्यायों और शिला-प्रक्षेपों का प्रावधान किया गया। विलक्षण बात यह है कि शय्याओं से युक्त ये गुफाएँ उस समय से बहुत पहले की हैं जब दक्षिणापथ में किसी जैन वास्तु-स्मारक का निर्माण किया गया होगा। समस्त तमिलनाडु में यत्र-तत्र स्थित ब्राह्मी-अभिलेखांकित ये गुफाएँ पूर्वी घाट के अनेक स्थानों, विशेष रूप से मदुरै के आसपास के क्षेत्र, में मिलती हैं।
ये प्रारंभिक जैन अधिष्ठान कई कारणों से महत्त्वपूर्ण हैं : (१) वे इस क्षेत्र के प्राचीनतम प्रस्तर-स्मारकों का प्रतिनिधित्व करते हैं, (२) ब्राह्मी लिपि में तमिल भाषा के प्राचीनतम अभिलेख उत्कीर्ण हैं और (३) वे तमिलनाडु में जैन धर्म के प्रारंभिक प्रसार का प्रमाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। फलस्वरूप, प्रस्तर और शैलोत्कीर्ण शैली की प्राचीनतम वास्तु-शिल्पीय गतिविधि और इस क्षेत्र में प्राप्त प्राचीनतम लेखों के अध्ययन में इनका अत्यधिक महत्त्व है, यद्यपि कलागत और सौंदर्यगत विकास की दृष्टि से वे किसी गतिविधि का प्रारंभ कदाचित् ही करते हैं। तथापि, धार्मिक स्थापत्य के उपयोग में लायी गयी प्रस्तर-सामग्री का प्रवर्तन उन आद्य प्रस्तर-स्मारकों में देखा जा सकता है जो अधिकांशतः जैन हैं। इसमें कम ही संदेह है कि इन गुफाओं ने परवर्ती काल में जैन और ब्राह्मण धर्मों की उन शैलोत्कीर्ण गुफाओं का मार्ग प्रशस्त किया जो उसी क्षेत्र में विकसित हुई जहाँ ब्राह्मी अभिलेखांकित प्राचीन गुफाएँ विद्यमान हैं।
इन जैन-केन्द्रों की कुछ सामान्य विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं। प्राकृतिक गुफाओं को इस प्रकार से परिवर्तित किया गया कि वे ग्रावास के योग्य बन सकीं। ऊपर, बाहर की ओर लटकते हुए प्रस्तरखण्ड को शिला-प्रक्षेप के रूप में इस प्रकार काटा गया कि उसने वर्षा के जल को बाहर निकालने तथा नीचे शरण-स्थल बनाने का काम किया। गुफाओं के भीतर शिलाओं को काटकर शय्याएँ बनायी गयीं जिनका एक छोर तकिये के रूप में प्रयोग करने के लिए कुछ उठा हुअा रखा गया। शय्याओं को छेनी से काट-काटकर चिकना किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ पर तो पालिश भी की गयी थी।
दाता या पावासकर्ता के नामों के उल्लेखयुक्त ब्राह्मी अभिलेख या तो शय्याओं पर ही उत्कीर्ण हैं या ऊपर की ओर लटकते हुए शिला-प्रक्षेप पर ।
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