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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई०
[ भाग 2 तिरुनेल्वेलि जिला १५-१६-मरुकल्तले (चिवलप्पेरि) (ईसा-पूर्व द्वितीय-प्रथम शताब्दियाँ) और वीर-शिखामणि तिरुनेल्वेलि तालुक में स्थित हैं, उनमें शय्याओं और ब्राह्मी अभिलेखों से युक्त गुफाएँ हैं । मरुकल्तलै अभिलेख में प्रस्तर-शय्या के लिए कंचणम् शब्द का प्रयोग हुआ है। वीरशिखामणि में प्रस्तर-शय्याओं के अतिरिक्त एक चरण-युगल भी है जो एक वर्ग के भीतर कमल पर उत्कीर्ण है। एक परवर्ती अभिलेख के अनुसार यह चरण युगल भी सहजानन्दनाथ का है।
तिरुनेल्वेलि जिले के सेन्दमरम्, मलैयदिक्कुरिच्चि और तिरुमलैपुरम में भी कुछ प्रस्तर शय्याएँ और जैन मूर्तियाँ होने की सूचना मिली है।
तिरुच्चिरप्पल्लि जिला
१७-तिरुच्चिरप्पल्लि (ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दियाँ)--तिरुच्चिरप्पल्लि में सुनहरी चट्टान नामक पहाड़ी पर शय्याओं से युक्त एक गुफा है । पल्लि शब्द का प्रयोग इस संदर्भ में स्थानवाची नाम के प्रत्यय के रूप में हुआ माना जा सकता है, जो इसके प्रारंभिक जैन संबंधों के कारण बन पड़ा है, क्योंकि यह शब्द सभी जैन प्रतिष्ठानों, विशेषतः विद्यालयों, के लिए प्रयोग में आया है। प्रस्तर-शय्याओं में से एक पर ब्राह्मी अभिलेख है, जिसे संदेह के साथ चेण्कयपन् पढ़ा गया है।
यहाँ शैव मत के सातवीं शती के गुफा-मंदिर हैं और इन गुफाओं का निर्माण पल्लव शासक महेन्द्र वर्मन् (लगभग ५८०-६३०) के द्वारा किया गया माना गया है। यदि यह परंपरा सही है कि यह पल्लव शासक जैन से शैव हो गया था और तिरुचिरप्पल्लि के शैलोत्कीर्ण गुफा-मंदिर उसके द्वारा उत्कीर्ण कराये गये मंदिरों में से प्राचीनतम हैं तो यह केन्द्र उन स्थानों में से एक माना जायेगा जहाँ कालांतर में जैन प्रतिष्ठानों को शैव और वैष्णव प्रतिष्ठानों के रूप में परिवर्तित किया गया या उनके स्थान पर शैव और वैष्णव प्रतिष्ठान निर्मित किये गये।
१८-तिरुच्चिरप्पल्लि जिले के कुलित्तले तालुक में स्थित शिवयम् में पाँच मीटर ऊँची एक सुन्दक्कपरै नामक अद्भुत चट्टान है। उसमें एक पंक्ति में उत्कीर्ण पाँच शय्याएँ हैं। उसकी एक चोटी पर एक चतुष्कोण पीठिका है, जिसपर महावीर और उनके अनुचरों की परवर्ती मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। कुछ परवर्ती अभिलेख भी हैं, जिनमें जैन प्राचार्यों के नामों का उल्लेख है।
1 एम० ई० आर०, 1907-08. भाग 2. अनुच्छेद 20.1908 का 42. 2 महादेवन (आई). कॉपस प्रॉफ तमिल ब्राह्मी इंस्क्रिप्शंस. 1966. मद्रास. पृ 11. 3 1913 का 50.
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