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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई०
[ भाग 2 पश्चिम भारत या दक्षिणापथ से इस काल की एक भी प्राचीन जैन मूर्ति अबतक प्राप्त नहीं
भड़ोंच के आर्य खपुट, सौराष्ट्र (पालिताना के निकट) के आर्य-पादलिप्त एवं वलभी (सौराष्ट में ही) के नागार्जुन के वृत्तान्तों से प्रमाणित होता है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में जैन पश्चिम-भारत में अत्यंत सक्रिय थे। आर्य नागार्जुन चौथी शती के प्रारंभ में आयोजित प्रथम वलभी परिषद् के अध्यक्ष थे। महान् जैन नैयायिक और द्वादशार-नयचक्र के प्रणेता आचार्य मल्लवादी ने वलभी में एक विवाद में बौद्धों को चौथी शती के प्रारंभ में पराजित किया था । पूर्वोक्त आर्य वज्रसेन के गुरु प्राचार्य वज्र द्वारा आभीर देश, दक्षिणापथा और श्रीमाल (मारवाड़ में वर्तमान भिनमाल) तक भ्रमण करने का उल्लेख मिलता है।
1 सांकलिया ने पूना जिले में कमशेट से लगभग 12 कि० मी० दूर पाल नामक स्थान की एक गुफा से प्राप्त एक शिला
लेख हाल ही में प्रकाशित किया है जिसका पाठ वे इस प्रकार करते हैं (1) नमो अरिहंतानं फागुन (2)द भदन्त इन्दरखितेन लेनम् (3) कारापितं पोदि च सहा च कहे सहा. उनका मत है कि यह एक जैन गुफा है. वे इस शिलालेख को ईसा से लगभग दूसरी शताब्दी-पूर्व का मानते हैं. द्रष्टव्ध : स्वाध्याय (गुजराती पत्रिका) बड़ौदा. 7, 419 तथा परवर्ती और चित्र. यह सुविदित है कि प्रारंभिक काल में अहत् शब्द का प्रयोग सामान्यतया बौद्ध और जैन दोनों द्वारा किया जाता था. यह कहना कठिन है कि केवल जैनों द्वारा इसका प्रयोग कब से प्रारंभ हुआ, क्योंकि इस क्षेत्र की कार्ला और अन्य गुफाएं निश्चित रूप से बौद्धों से संबंद्ध थीं. अतः कोई भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि यह एक जैन शिलालेख है, किन्तु इस संभावना को पूर्णतया अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता. हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि गुप्त-युग के पूर्व और कुषाणयुग की समाप्ति के
पश्चात् किसी समय से, अर्हत् या अरिहन्त शब्द का प्रयोग धीरे-धीरे केवल जैन तीर्थंकरों के लिए ही होने लगा. 2 आवश्यक नियुक्ति तथा चूणि पृ 542. निशीथ चूणि. 10. पृ 101. / बृहत्कल्पभाष्य. 4.5115 तथा परवर्ती./
पूर्वोक्त पाद-टिप्पणी भी द्रष्टव्य. 3 प्रावश्यक चूणि . पृ 554 / पिण्ड नियुक्ति. पृ 497 तथा परवर्ती. 4 कल्याण विजय, पूर्वोक्त . पृ 110-18. 5 जम्बूविजय. द्वादसार-नयचक्र. प्रस्तावना. 6 प्रावश्यक चूणि. पृ 396-97. 7 वही, पृ 404. 8 प्रावश्यक टीका. पृ 390 क. संभवतः आर्य वैर (वज्र) प्राचार्यरत्न मुनि वरदेव का ही नाम है जो
राजगिरि की सोनभण्डार गुफा के शिलालेख में अंकित है. यह मत उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने जर्नल प्रॉफ द बिहार रिसर्च सोसायटी. 34; 1953; 410-12 में व्यक्त किया है. [अन्य लोगों को इस मत पर संदेह है, द्रष्टव्य : अध्याय 11. इस अध्याय के लेखक ने व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार में मुझे बताया है कि समस्त उपलब्ध दिगंबर और श्वेतांबर साहित्य या पट्टावलियों में प्राचार्य वज्र और उनके शिष्य वज्रसेन (प्राकृत में वैर और वैरसेन) नामों के दो ही प्राचार्यों का उल्लेख मिलता है और इन्हीं का उल्लेख सोनभण्डार शिलालेख में किया गया होगा . अत: श्री शाह द्वारा व्यक्त मत संभावना पर बहुत अधिक आधारित है. इन गुफाओं की तिथि के बारे में वे एस के सरस्वती के विचारों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं. --संपादक]
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