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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई०
[ भाग 2 एक पूर्ण विकसित विहार में एक या उससे अधिक कोठरियाँ होती हैं, जिनके आगे एक बरामदा होता है। कहीं-कहीं बरामदों के सामने आँगन के लिए समतल की हुई भूमि है, यथा उदयगिरि की गुफाएँ सं० १ (रानी गुम्फा, चित्र २५), सं० ६ (मंचपुरी और स्वर्गपुरी, चित्र २३) और १० (गणेश गुम्फा) तथा खण्डगिरि की गुफा सं० ३ (अनन्तगुम्फा, चित्र २६ और २७)। बरामदों के एक, दो या तीन ओर पंक्तिबद्ध कोठरियाँ हैं। प्रायः एक कोठरीवाली रूपरेखा अधिक पायी जाती है। रानीगुम्फा की विशेषता यह है कि इसमें मुख्य स्कंध के समकोण की स्थिति में कोठरियों के दो छोटे स्कंध हैं जिनके सामने बरामदा है और भूतल पर दो छोटे रक्षा-कक्ष हैं। सामान्यतः ऊपरी तल निचले तल पर आधारित नहीं है, अपितु पीछे हटकर बनाया गया है। ऐसा प्रबंध या तो भार कम करने के लिए या फिर शिलाखण्ड की ढलवाँ रूपरेखा के कारण अथवा दोनों बातों को ध्यान में रखकर किया गया है । स्वर्गपुरी के सामने खुले स्थान में एक शैलोत्कीर्ण वेदिका (चित्र २३) आगे को निकली हुई है, जो एक छज्जे का आभास देती है।
कुशल मिस्त्रियों और अभियंताओं (इंजीनियरों) के स्थान पर, जिनकी किसी भी स्थापत्य कृति के लिए आवश्यकता होती है, शिल्पियों और मूर्तिकारों द्वारा चट्टानें काटकर काष्ठ, बाँस और छप्पर से निर्मित भवनों या आवासों का अनुकरण करके बनायी गयी ये गफाएँ जैन स्थापत्यकला इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। तत्कालीन जैन भवनों के नितांत अभाव के कारण उनका महत्त्व और बढ़ गया है। इनकी खुदाई करनेवालों ने चट्टानों में उन्हीं भवनों का अनुकरण करने का प्रयत्न किया, जिनसे वे परिचित थे। इसका परिणाम यह हुआ कि लकड़ी, खपरैल और छप्परवाले भवनों में विशेष रूप से पाये जानेवाले लक्षणों को इनमें उतारा गया। यद्यपि ऐसा करना स्थायित्व को दृष्टि से निरर्थक और अनावश्यक था। इस प्रकार कोठरियों की छतें कहीं-कहीं तोरणाकार और झोंपड़ी के सदृश उन्नतोदर हैं; टोड़ों पर टिकी हुई बरामदों की छतें और स्तंभों पर आधारित सरदल, बाँस और लकड़ी से निर्मित झोंपड़ी के सदृश कोठरियों की अपेक्षा बहुत अधिक नीचे हैं। इसी प्रकार बरामदों के फर्श भी कोठरियों के धरातल से नीचे हैं। बरामदों की छतें परनाले के रूप में बाहर निकली हुई हैं और इन परनालों का अंतरिम भाग छप्परवाली या लकड़ी की झोंपड़ियों के समान इस प्रकार मुड़ा हुआ है कि बरसाती पानी आसानी से निकल जाये । द्वार-स्तंभ भीतर की ओर झुके हुए हैं जिनके कारण प्रवेशमार्ग नींव के स्थान पर ऊपर की अपेक्षा नीचे अधिक चौड़ा है जो चिनाई या प्रस्तर-शिल्प के लिए उपयुक्त नहीं है।
कोठरियों में प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है; न केवल इसलिए कि उनके द्वार सीधे बरामदे की ओर या फिर बिलकुल खुले में खुलते हैं, अपितु दरवाजों की अधिकता के कारण भी यह संभव हो सका है, जिनकी संख्या कोठरियों के आकार के आधार पर एक से चार तक है। कुछ बहुत विरल उदाहरणों में गवाक्षों की भी व्यवस्था है। दरवाजों की बाहरी चौखटों में चारों ओर छेद बनाये गये हैं ताकि उनमें घूमनेवाले लकड़ी के कपाट लगाये जा सकें । कहीं-कहीं कब्जों के लिए भी अतिरिक्त छेद बनाये गये हैं--देहरी और सरदल में एक-एक--ताकि उनमें एक ही कपाट लगाया जा सके ।
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