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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई०
[ भाग 2
की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध रानीगुम्फा के दो रक्षक-कक्षों के मुखभागों पर भी प्रचुर शिल्पांकन किया गया है ।
साज-सज्जा में प्रयुक्त प्रायः सभी अलंकरण प्रतीक ( नमूने) भरहूत और सांची में मिलते हैं जिनसे उनकी सामान्य परंपरा का आभास मिलता है। इसके साथ ही मधुमालती लता, कंगूरे तथा पंखधारी पशु-जैसे कुछ पश्चिम एशियाई कला प्रतीकों जिनका उस युग में भारत के अधिकांश भागों में व्यापक प्रचार हुआ था -- के प्रयोग से इस संभावना का भी अंत हो जाता है कि कला-प्रतीक और कला-परंपरा का स्वतंत्र और पृथक् रूप से विकास हुआ था । अलंकरण प्रतीकों में स्वयं ऐसे चिह्नों का अभाव है जो विशिष्ट रूप से जैन हों, क्योंकि ब्राह्मण तथा बौद्ध दोनों मतानुयायियों ने भी इन्हीं कला-प्रतीकों का उपयोग किया है।
यद्यपि ये मध्यदेश की कला-परंपरा के अनुरूप हैं, तो भी, मूर्तियुक्त शिल्पाकृतियों का श्रादिकालीन भारतीय कला में अपना विशिष्ट स्थान है। अनेक आकृतियों की मुख मुद्राओं में प्रांतीय पुट है शिल्पांकनों के कार्य कौशल में कोई एकरूपता नहीं है, फिर भी समग्र रूप से विचार करने पर, निश्चय ही वह भरहुत शैली से अधिक विकसित रूप प्रदर्शित करते हैं ।
गुफा सं० १ ( रानीगुम्फा) के मुख्य स्कंध के निचले तल में लगातार शिल्पाकृतियाँ हैं, जिनमें दिग्विजयी नरेश के विजय अभियान का चित्रण किया गया प्रतीत होता है। इनमें राजा अपनी विजय यात्रा राजधानी से प्रारंभ करता है और अनेक देशों पर विजय प्राप्त करता हुआ राजधानी लौटता है। प्रजा अपने घरों से राजा के प्रस्थान को देख रही है। यह सोचने के लिए जी चाहता है कि शिल्पाकृतियों की यह लम्बी चित्र-वल्लरी खारवेल के विजय अभियानों से प्रेरित होकर बनायी गयी है । '
गुफा सं० १ के ऊपरी तल के मुख्य स्कंध के अग्रभाग की शिल्पाकृतियों (चित्र ३२ क और ३३क) की तुलना सांची के द्वारों के शिल्पांकनों से भलीभाँति की जा सकती है और भरहुत-कला के
1 मित्रा, पूर्वोक्त, पृ 20-22. एक विद्वान् के अनुसार इस चित्र वल्लरी के दृश्य तीर्थंकर के रूप में पार्श्वनाथ के विहार और उनका जो सम्मान किया गया उसे दर्शाते हैं । उसी विद्वान् के अनुसार, गुफा सं० 1 के ऊपरी तल तथा गुफा सं. 10 (गणेशगुम्फा) की सामने की भित्तियों के शिल्पांकनों में पार्श्वनाथ के जीवन की घटनाओं के दृश्य अंकित किये गये हैं जिनमें उनके द्वारा किया गया प्रभावती का उद्धार और आगे चलकर उससे विवाह की घटना भी सम्मिलित है, [ श्रो' माले (एल एस एस ). बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स-पुरी. 1908 कलकत्ता पृ 256 और 259 ]. जो भी हो, वासुदेवशरण अग्रवाल का सुझाव इन दृश्यों में से दो को दुष्यन्त शकुन्तला और उदयन- वासवदत्ता की कथाओं से संबंधित घटनाओं के रूप में पहचानने की ओर था [ वामदत्ता एण्ड शकुन्तला सीन्स इन द रानीगुम्फा केव इन उड़ीसा जर्नल ग्रॉफ दि इण्डियन सोसाइटी श्रॉफ ओरियण्टल आर्ट 14; 1946; 102-109.]
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