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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई०पू० से 300 ई०
[ भाग 2 प्रतीत होती हैं । जैन मुनियों के रहने योग्य ये गुफाएं विशाल आयताकार कक्ष है। भित्तियों से बाहर निकली हुई तोरणाकार छत किसी अप्रकट शिलाफलक से प्रारंभ होती है । पश्चिमी गुफा की एक प्रारंभिक विशिष्टता यह है कि इसके द्वार-स्तंभ ढलुवाँ हैं और ऊपर की अपेक्षा नीचे अधिक चौड़े हैं । यह प्रस्तर-शिल्प में काष्ठ-शिल्प का निरर्थक अनुकरण है। यह गुफा पूर्वी गुफा से बड़ी है । इसमें एक छोटा-सा चौकोर वातायन है, जिसके कोने भी सादे और ढलुवाँ हैं। भित्तियों पर बढ़िया पालिश के भी चिह्न मिलते हैं । इसमें बने कोटरों से पता चलता है कि इसमें पहले द्वार-पट लगे हुए थे।
पाटलिपुत्र (पटना) के उपनगर लोहानीपुर से प्राचीन जैन पुरावशेष मिले हैं। इस स्थान से प्राप्त हुए थे-प्रस्तर के दो नग्न धड़, एक शीर्ष का निचला भाग, एक खण्डित हाथ या पैर और ईंटनिर्मित एक नींवाधार (२.६८ वर्ग मीटर) तथा नींव में घिसी हुई एक छिद्रयुक्त रजतमुद्रा।' दुर्भाग्यवश इस खोज के पश्चात् सुनियोजित उत्खनन नहीं किया गया जिसके परिणामस्वरूप हम आज तक प्राचीनतम जैन अधिष्ठानों के पुरावशेषों के विषय में अंधकार में हैं। बलुए पत्थर के बने खण्डित शीर्ष और दो में से एक धड़ (चित्र २१ क) में विशिष्ट मौर्ययुगीन पालिश है। स्पष्टतः वे मौर्यकालीन हैं । शीर्ष, जो धड़ के अनुपात से बड़ा है, प्रत्यक्षतः किसी अन्य मूर्ति का है । नासिका के ऊपर का भाग विद्यमान नहीं है। उपलब्ध भाग की जाँच से प्रतीत होता है कि सुडौल अोष्ठयुक्त मुख गोल था । यद्यपि पालिशयुक्त धड़ की दोनों भुजाओं का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका है, तथापि, ऐसा लगता है कि यह मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में थी और उसकी भुजाएं जंघाओं तक लटकती थीं। इस अनुमान को न केवल बाहुओं के अवशिष्ट ऊपरी भाग और शरीर की रचना से समर्थन मिलता है अपित, जंघानों पर, जहाँ हथेली या कलाई का स्पर्श होता है, बने चिह्नों के संकेतों से भी। निस्संदेह यह मूर्ति तीर्थकर की है। धड़ की प्रतिकृति, जो गोल है, बहुत कुछ स्वाभाविक है। उसपर दक्ष कलाकार की छाप स्पष्ट दिखाई देती है । मूर्तिकला संबंधी विशेषताओं की दृष्टि से यह प्रतिकृति लोहानीपुर से प्राप्त दूसरे धड़ (चित्र २१ ख) की अपेक्षा उत्कृष्टतर है। कायोत्सर्ग मुद्रावाले दूसरे धड़ की भुजाएं छोटी होने से बेडौल लगती हैं। आदिम यक्ष मूर्तियों की परंपरा की तुलना में यह धड़ ईसा-पूर्व दूसरी शती से अधिक प्राचीन नहीं प्रतीत होता ।
चौसा (जिला भोजपुर) में अठारह जैन कांस्य मूर्तियों की आकस्मिक प्राप्ति ने इस बात की संभावना को बढ़ा दिया है कि उक्त स्थान या उसके समीपवर्ती स्थानों से प्राचीन जैन पुरावशेष मिल सकते हैं। दुर्भाग्यवश, यहाँ भी सुनियोजित सर्वेक्षण और उत्खनन के आधार पर अन्वेषण नहीं किया
1 जायसवाल (के पी). जैन इमेज ऑफ मौर्य पीरियड. जर्नल ऑफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी.
23; 1937; 130-32. / बनर्जी-शास्त्री (ए). मौर्यन स्कल्पचर्स फ्रॉम लोहानीपुर, पटना, पूर्वोक्त, 24; 1940%; 120-24.
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