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अध्याय 6
मथुरा
प्राचीन इतिहास
शूरसेन महाजनपद की राजधानी मथुरा ईसा-पूर्व छठी शताब्दी में एक महत्त्वपूर्ण नगर था। ईसा-पूर्व चतुर्थ शताब्दी में नंद साम्राज्य के उदय के साथ-साथ यह जनपद संभवतः मगध साम्राज्य का एक अभिन्न अंग बन गया और तब राजधानी के रूप में मथुरा का अस्तित्व समाप्त हो गया। मेगस्थनीज ने (लगभग ३०० ईसा-पूर्व), जो नंद साम्राज्य को पराजित करनेवाले चंद्रगुप्त मौर्य की राजसभा में ग्रीस का राजदूत था, मेथोरा (मथुरा) और क्लाइसोबोरा (कृष्णपुर)का उल्लेख शौरसेनी साम्राज्य के दो महानगरों के रूप में किया है जो विशेषकर अपनी कृष्णोपासना (ग्रीक हिराक्लीज) के लिए विख्यात थे। मथुरा की समृद्धि का कारण केवल यही नहीं था कि वह कृष्ण की जन्मभूमि थी और परिणामतः भागवत धर्म का एक सुदृढ़ गढ़ थी, अपितु उसका एक कारण यह भी था कि वह एक ऐसे राजमार्ग पर स्थित थी जो इसे वाणिज्यिक सार्थवाह मार्गों के साथ जोड़ता था। इनमें से एक मार्ग तो तक्षशिला और उससे भी आगे तक जाता था, जिसके परिणामस्वरूप व्यापार के माध्यम से मथुरा में अपार वैभव उमड़ पड़ा था। यह नगर स्वदेशी और पश्चिम एशियाई दोनों प्रकार की विभिन्न परंपराओं का मिलन-स्थल बन गया था। पश्चिम-एशियाई परंपराएँ वहाँ पर धुर उत्तर-पश्चिम से होकर आ रही थीं। इस विश्वनगर में जिस मिश्रित सभ्यता का विकास हुआ वह उसके उन आलंकारिक कला-प्रतीकों, वास्तुशिल्प एवं कला से पर्याप्त रूप से स्पष्ट हो जाती है जो अपनी समन्वयी प्रकृति के लिए उल्लेखनीय है । मथुरा मध्य देश के उन गिने-चुने स्थानों में से एक था जिन्होंने यूनानी संस्कृति का प्रभाव पर्याप्त समय पूर्व ग्रहण कर लिया था। जैसा कि गार्गी संहिता के युग-पुराण-खण्ड से ज्ञात होता है, ईसा-पूर्व द्वितीय शताब्दी के प्रारंभ में ही, मौर्यों के मूलोच्छेदक पुष्यमित्र शुंग (लगभग १८७-१५१ ईसा-पूर्व) के सत्तारूढ़ होने से कुछ पूर्व, मथुरा को यवन-अाक्रमण का सामना करना पड़ा था। ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में मथुरा शक सत्रपाल राजवंश के शासकों का मुख्यालय बन गया, जिन्होंने स्थानीय मित्रवंशीय शासकों को उखाड़ फेंका था । कालांतर में सत्रपाल राजवंश को कुषाणों ने अपदस्थ कर दिया। कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में मथुरा की स्थिति बहुत ही गौरवपूर्ण थी, जो न केवल इन शासकों के शासनकाल के बहुत से शिलालेखों से ही, जिनमें अनेक बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण्य
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