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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई०
[ भाग 2 निमितियों एवं मूर्तियों के समर्पण की बात कही गयी है, अपितु कुषाण-शासकों की चित्र-दीर्घा के निर्माण से भी स्पष्ट हो जाती है। कुषाण-शासन के पतनोपरांत, मथरा में नाग राजवंश की सत्ता हुई, किन्तु चतुर्थ शती ईसवी में गुप्त-साम्राज्य के उदय के साथ मथुरा का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया।
जैन परंपरा में मथुरा
मथुरा जैन मतावलंबियों के लिए प्राचीनकाल से ही विशेष रूप से पवित्र स्थान रहा है। तथापि, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि जैन धर्म ने मथुरा की भूमि पर कब पदार्पण किया। परवर्ती जैन धर्मग्रंथों में वर्णित अनुश्रुतियों में मथुरास्थित जैन प्रतिष्ठानों को अत्यंत प्राचीन बताया गया है और उन्हें अनेक तीर्थंकरों के साथ संबद्ध किया गया है। इस प्रकार, जिनप्रभ-सूरि (चौदहवीं शताब्दी) के मतानुसार, मथुरा में स्वर्ण एवं मणि-निर्मित एक स्तूप था, जिसका निर्माण देवी कुबेरा ने सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के सम्मान में करवाया था। दीर्घकाल पश्चात, तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मथुरा-यात्रा के उपरांत, देवी के आदेश से इस स्तूप पर ईंटों का आवरण चढ़ाया गया और उसके पार्श्व में पार्श्वनाथ की एक प्रस्तर-प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी । महावीरनिर्वाण से तेरह शताब्दियों के पश्चात् बप्पभट्टि सूरि की प्रेरणा से इस स्तूप का जीर्णोद्धार किया गया। विविध-तीर्थ-कल्प में मथुरा के श्रीसुपाश्व-स्तूप को एक महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल बताया गया है। एक अनुश्रुति में मथुरा को इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की जन्मभूमि बताया गया है, किन्तु उत्तर पुराण के अनुसार उनकी जन्मभूमि मिथिला थी। वासुदेव-कृष्ण और बलराम के सगे चचेरे भाई होने के कारण, बाईसवें तीर्थंकर हरिवंशीय अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) का मथुरा के साथ घनिष्ठ संबंध था। कहा जाता है कि उनके पिता समुद्रविजय, जो वसुदेव के भाई थे, शौर्यपूर के शासक
| जिनप्रभु-सरि. विविध-तीर्थ-कल्प. संपा : जिनविजय. 1934. शांतिनिकेतन. पृ 17 तथा परवर्ती./ स्मिथ (विसेण्ट
ए). जैन स्तूप एण्ड प्रदर एण्डिक्विटीज प्रॉफ मथुरा. आयॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, न्यू इंपीरियल सीरीज़.
1901. इलाहाबाद. पृ 13./ शाह (यू पी ). स्टडीज इन जैन पार्ट. 1955. बनारस. पृ9 तथा 62-63. 2 विविध-तीर्थ-कल्प. पृ 85. 3 भट्टाचार्य (बी सी). जैन आइकॉनॉग्राफी. 1939. लाहौर. पृ 80. 4 वही, पृ 79. 5 इस स्थान का सामान्यतया एक प्राचीन स्थल के साथ तादात्म्य स्थापित किया गया है. बटेश्वर (जिला आगरा) के
निकटवर्ती इस स्थान को सुरपुर, सौरिपुर, सूरजपुर तथा सूर्यपुर नामों से पुकारा गया है; द्रष्टव्य : उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स प्रागरा. संपा : ई बी जोशी. 1965. लखनऊ. पृ 22. कृष्ण का एक उपनाम शौरि भी है, अत: बी. सी.ला ने शौर्यपुर या शौरिपुर का मथुरा के साथ ही तादात्म्य स्थापित किया है (जर्नल प्रॉफ न रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, लटर्स. 13; 1947; 21 और 25). बी सी भट्टाचार्यम्, ने इसका द्वारका के साथ तादात्म्य स्थापित किया है (पूर्वोक्त, पृ 81).
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